पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

'दो-सगुन प्रथम उनचास सुभ, तुलसी अति अभिराम । सब प्रसन्न सुर भूमिसुर, गो गन गगाराम ॥" इससे प्रकट होता है कि पं० गङ्गाराम गोसाँईजी के प्रीति भाजन थे । एक दिन राजघाट के राजा का कुमार पन में शिकार खेलने गया और नौकरों ने आकर राजा को खबर दी कि कुमार को शेर सा गया। दरवार में उस समय पं० गङ्गाराम विद्यमान थे, राजा ने शोक-सन्तप्त हृदय से प्रश्न किया। पं० गङ्गाराम ने कहा-धवराने की कोई बात नहीं, कुमार जीवित है। यह कहना ज्योतिपीजी के लिये विष हो गया। राजा ने आज्ञा दी कि यदि श्राप का उत्तर सत्य होगा और कुमार सकुशल कल्ह सन्ध्या तक भाजायगे तो इस खुशी के बदले तुम्हे एक लास मुद्रा पुरस्कार दिया जायगा। कदाचित कुमार मृतक हो गये होंगे तो इस मिथ्या प्रश्नोत्तर के कारण तुम अवश्य ही तोप से उड़वा दिये जानोगे । गलाराम राजा को बहुत अाश्वासन देकर घर आये और बड़े दुःख के साथ सारा वृत्तान्त गोस्वामीजी से निवेदन किया । गोस्वामीजी ने तस्क्षण रामशलाका (प्रश्नावली) बनायी और उससे प्रश्न निकाल कर कहा-घबराओ मत, कल्ह ठीक समय पर कुमार आ जायगा । वैसा ही हुओ, दूसरे दिन राजकुमार श्रओ गया। राजा ने प्रसन्न होकर पं० गङ्गाराम को एक लक्ष मुद्रा पुर- स्कार में दिया । गङ्गाराम ने सब रुपया गोसाँईजी के चरणों में अर्पण किया, उसमें बारह हज़ार रुपया बहुत आग्रह करने पर उन्होंने खीकार किया और शेष गनाराम को अपने गृहकार्य में लगाने की आशा दी । कहा जाता है कि उन रुपयों से काशी में गोलाईजी ने भिन्न भिन्न स्थानों में हनूमान- जी के बारह मन्दिर धनवाये । (३)-सङ्कटमोचन नगवा पर एक मन्दिर बनवा कर उसमें हनुमानजी की मूर्ति की स्था. पना करवायी । कहते हैं यह मन्दिर उन्हीं बारहों में से एक है (8)-गोपालमन्दिर में श्रीमुकुन्दरायजी के बाड़ा में दक्षिण-पश्चिम के कोण पर एक कोठरी है। उसमें गोसाईजी रहते थे, वह कोठरी श्रव सदा बन्द रहती है केवल श्रावण शल, ७ को खुलती है । उस दिन लोग वहाँ जाकर दर्शन और पूजन करते हैं । उक्ततिथि के अतिरिक्त चारहों महीने में झरोखे से दर्शन होता है । अधिकांश विद्वानों का मत है कि विनयपत्रिका इसी स्थान में गोस्वामीजी ने लिखी थी। यहाँ भी जब वल्लभकुलवालों ने उनसे व्यर्थ का द्वेष किया, वव वे इस स्थान को त्याग अस्सीघाट पर चले गये और अन्त तक वहीं रहे। (५) अस्सी पर तुलसीदासजी का घाट प्रसिद्ध है। यहाँ भी उन्होंने हनुमानजी की भूचि स्थापित की है। मन्दिर के बाहर एक वीसायन्त्र लिखा है जो अब पढ़ा नहीं जाता। यहाँ गोसाँईजी की एक गुफा है । इस स्थान में उन्होंने रामलीला करानी प्रारम्भ की जो अबतक होती है और तुलसी- दास की रामलीला के नाम से प्रसिद्ध है। कहते हैं रामलीला के अतिरिक्त यहाँ वे कृष्णलीला भी करवाते थे। कार्तिक वदी ५ को 'कालियड्मनलीला' अस्सी घाट पर श्रवतक अच्छी रीति से होती है। गुरु का नाम। तुलसीचरित में रघुवरदास ने गास्त्रामाजी के गुरु का नाम 'श्रीरामदास' लिखा है; अधिकांश लोगों को सम्मति है कि इनके गुरु 'श्रीनरहरिदासजी थे। रामचरितमानस के श्रादि में "कृपासिन्धु नर रूप हरि" का लोग नरहरि अर्थ करते हैं। सम्भव है कि एक विद्यागुरु रहे हो और परन्तु