पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३३४

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २७५ सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। नत मारे जइहैं सब राजा ॥ सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने । बाले परसुधरहि अपमाने ॥३॥ वह राजसमाज को छोड़ कर अलग हो जाय, नहीं तो सब राजा मारे जाँयगे । मुनि के वचन सुन कर लक्ष्मणजी मुस्कुराने और भलुहाधारी (परशुराम ) के अपमान की बात चोले ॥ ३ ॥ लक्ष्मणजी के मुस्कुराने में लक्षणामूलक गढ़ व्यङ्ग है कि रामचन्द्रजी के नम्र निवेदन पर भी इन्होंने दर्द भरी वाणी कही है। मुनि को क्रोधान्ध समझ कर 'शठं प्रति शाठ्यं कुर्यात्' के अनुसार वचन बोले। बहु धनुही तोरी लरकाई । कबहुँ न असि रिस कीन्हि गुसाँई ॥ एहि धनु पर ममता केहि. हेतू । सुनि रिसाइ कह भृगुकुल केतू ॥४॥ लड़कपन में हमने बहुत सो धनुही तोड़ी, पर हे गुसाई ! ऐसी रिस आप ने कभी नहीं की। इसी धनुष पर किस कारण इतनी प्रीति है ? यह सुन कर भृगुवंश के पताका क्रोधित होकर बोले ॥४॥ वालपन में धनुर्विद्या सीखते समय न जाने कितनी धनुहियाँ टूटी थी, वही बात लक्ष्मण • जी ने कही है। यहाँ पर लोग तरह तरह की ऊपरी बातें कहते हैं, वे सब असङ्गत हैं। दो०-२ नृप-बालक काल-बस, बोलत तोहि न सँभार। धनुहीं सम त्रिपुरारि-धनु, विदित सकल संसार ॥२०१॥ अरे राजपुत्र तू कालवश हुआ है जो सँभाल कर नहीं बोलता। शिवजी का धनुष सम्पूर्ण जगत में विख्यात है, उसके समान धनुहियाँ हैं १ ॥ २७१ ॥ चौ-लखन कहा हाँसि हमरे.जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ॥ का. छति लाभ जून धनु तारे । देखा राम नये के भारे ॥१॥ लक्ष्मणजी ने हँस कर कहा-हे देव! सुनिये, हमारे जान तो सब धनुष बराबर हैं। पुराने धनुष के तोड़ने से क्या हानि लाभ है ? रामचन्द्रजी ने तो नये के धोने में देखा ॥१॥ छुअत टूट रघुपतिहु न दोषू । मुनि बिनु काज करिय कत राषु । बोले चितइ परस को ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ॥२॥ छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी दोष नहीं है, हे मुनि ! बिनो प्रयोजन काहे को क्रोध करते हो । फरसे की ओर निहार कर (परशुरामजी) वोले, रे दुष्ट ! तू ने मेरे स्वभाव को नहीं सुना है ? ॥२॥ फरसे की ओर देखना भय प्रदर्शन और स्वभाव जानने में अपनी उत्कट शूरता व्यजित करने की ध्वनि है।