पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३३६

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २७७ इहाँ कुम्हड़-बतिया कोउ नाही । जे तरजनी देखि मरि जाहीं ॥ देखि कुठार सरासन बाना। मैं कछु कहेउँ सहित अभिमाना ॥२॥ यहाँ कोई कोहड़े की बतिया नहीं है जो तर्जनी उँगली देख कर मर जाती है। कुल्हाड़ा और धनुष-बाण (क्षत्रियत्व का चिन्ह ) देख कर मैं ने कुछ अभिमान सहित बातें कही हैं ॥२॥ इन वाक्यों से अपनी शुरता व्यजित करना गुणीभूत व्यङ्ग है। भृगुकुल समुझि जनेउ बिलोकी । जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी ॥ सुर महिसुर हरिजन अरु गाई । हमरे कुल इन्ह पर न सुराई ॥३॥ भृगु-वंशज (प्राह्मण,) समझ कर और जनेऊ देन कर जो कुछ कहिए वह क्रोध रोक कर सहूँगा । देवता, ब्राह्मण, हरिभक्त और गैया इन पर हमारे कुल के लोग शरता नहीं दिखाते ॥३॥ रिस रोक कर सहने का कारण युक्ति से समर्थन करना कि देवता, ब्राह्मणादिकों पर हमारे कुल के लोग शूरता नहीं दिखाते 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है। और इन वाक्यों से अपने कुल की धर्म-भीरता न्यजित करना वाध्यसिद्धाशगुणीभूत व्यङ्ग है। बधे पाप अपकीरति हारे । भारतहूँ पाँ परिय तुम्हारे । कोटि कुलिस सम बचन तुम्हारा । व्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ॥४॥ मार डालने से पाप चढ़ता है और हार जाने से अपकीर्ति होती है, इसलिए मारते हुए भी मैं आप के पाँव पड़ता हूँ। करोड़ों वज्र के समान आप के वचन ही हैं, धनुष बाण और कुल्हाड़ी व्यर्थ लिये हो ॥४॥ वचन को वज्र की समता देकर धनुष-बाण और कुठार को व्यर्थ ठहराना अर्थात् उपमान के मोकाविले उपमेय को व्यर्थ कहना 'पंचम प्रतीप अलंकार' है। दो-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ, छमहु महा मुनि धीर । सुनि सरोष भूगुबंस-मनि, ओले गिरा गंभीर ॥ २७३ ॥ हे धीर महामुने मैंने जो देख कर अनुचित कहा, उसे क्षमा कीजिए। यह सुन कर भृगुवंश-मणि क्रोध से गम्भीर वाणी बोले ॥ २७३ ॥ चौथ-कासिक सुनहु मन्द यह बालक । कुटिल काल बस निज कुल घालक॥ भानु-बंस-राकेस कलङ्क । निपट निरङ्कुस अबुध असङ्क ॥१॥ हे विश्वामित्रजी ! सुनिए, यह बालक नीच, दुष्ट, काल के अधीन और अपने कुल'का नाश करनेवाला है। सूर्यवंश रूपी चन्द्रमा का कला रूप है और विरकुल स्वेच्छाचारी, नासमझ एवंम् शङ्का रहित है ॥१॥