पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३३८

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कहा छमिय प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २७९ अब जनि देई दोष माहि लागू । कटुबादी बालक बध जोगू । बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा । अब यह मरनहार मा साँचा ॥२॥ अब मुझे लोग दोष न दें, यह कड़वी बात बकनेवाला बालक मारने ही योग्य है ! लड़का जान कर मैं ने इसे बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने ही को तुल गया है ॥ २॥ कासिक अपराधू । बाल दोष-गुन गनहिँ न साधू ॥ कर कुठार मैं अकरन-कोही । आगे अपराधी गुरु-द्रोही ॥३॥ विश्वामित्रजी ने कहा-अपराध क्षमा कीजिए, बालक के गुण-दोष को साधुजन नहीं विचारते । परशुरामजी बोले- हाथ में फरसा है, मैं अकारण ही क्रोधी हूँ और गुरु का द्रोही अपराधी सामने है॥३॥ इस कटु वचन पर बालक को मारने के लिए हाथ में भलुहे का रहना काफी कारण है, उस पर अकारण क्रोध, गुरु अपमानकारी अन्य प्रबल कारण भी विद्यमान रहना 'द्वितीय समुच्चय अलंकार है। उत्तर देत छाड़उँ बिनु मारे। केवल 'कासिक सील तुम्हारे ॥ न त एहि कोटि कुठार कठोरे । गुरुहि उरिन होतेउँ सम थोरे ॥४॥ उत्तर देता है, ऐसी दशा में मैं बिना मारे छोड़ता हे विश्वामित्र! केवल आप के शील से छोड़ता है। नहीं तो इसको कठिन कुल्हाड़े से काट कर थोड़े ही परिश्रम से गुरु से उऋण हो जाता दो०-गाधि-सूनु कह हृदय हँसि, मुनिहि हरिअरइ सूत्र । अय-मय-खाँड़ न जख-मय, अजहुँ न बूत अबूझ ॥ २७५ ॥ विश्वामित्रजी मन में हँस कर कहते हैं कि परशुराम को हरियाली ही सूझ रही है। ये ( राम-लक्ष्मण ) लोह मिश्रित खाँड (खड्ग) हैं, ऊख से बने हुए नहीं, अब भी अबूझ की तरह नहीं समझते हैं ॥२५॥ मुनि को हरियाली ही सूझ रही है अर्थात् जैसे सब क्षत्रिय राजाओं का बध किया वैसा ही राम लक्ष्मण को भी समझते हैं, जिन्होंने वन के समान शिव धनुष को तोड़ डाला। अबूझ है अब भी नहीं समझते ? 'खाँडा शब्द में श्लेष अलङ्कार है, क्योंकि सङ्ग खाँड़ दोनों अर्थ प्रकट होता है। अन्न की खाँड़ लोग सहज में खाते हैं। किन्तु लोह का खग जो खायगा वह प्राण गवावेगा। सभा की प्रति में 'अजगव खण्डेड अन जिमि' पाठ है। उसका अर्थ है-महादेव के धनुष को अख की तरह तार डाला। चौ०-कहेउ लखन मुनि सील तुम्हारा । को नहिं जान बिदित संसारा॥ माता पितहि उरिन भये नोके । गुरु रिन रहा सोच बड़.जी के ॥१॥ लक्ष्मणजी ने कहा-हे मुनि श्राप के शील को कौन नहीं जानता ? वह संसार में प्रसिद्ध है। माता और पिता से अच्छी तरह उऋण हुए हो, गुरु का ऋण वाकी रह गया उसका आपके हृदय में बड़ा सोच है ॥१॥