पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

॥ प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २८१ दो०-लखन उतर आहुति सरिस, भृगुषर कोप कृसानु । बढ़त देखि जल सम बचन, बोले रघुकुल-भानु ॥ २७६ ॥ लक्ष्मणजी का उत्तर आहुति के समान और परशुरामजी का क्रोध अग्नि के तुल्य है। बढ़ते देख कर जल के समान बुझानेवाला बचन रघुकुल के सूर्य रामचन्द्रजी बोले ॥ २७६ ॥ चौ०-नाथ करहु बालक पर छोहू । सूध दूध-मुख करिय न कोहू जौँ पै प्रभु प्रनाउ कछु जाना । ता कि बराबरि करइ अजाना ॥१॥ हे नाथ ! बालक पर दया कीजिए, सीधे दुधमुंहे पर क्रोध न कीजिये। यदि आप के प्रभाव को कुछ जानता तो क्या अनजान की तरह बराबरी करता ॥१॥ जौँ लरिका कछु अचगरि करहाँ । गुरु पितु मातु माद मन अरहीं। करिय कृपो सिसु सेवक जानी । तुम्ह सम सील धीर मुनि ज्ञानी ॥२॥ यदि लड़के कुछ नटखटी करते हैं तेगुरु, पिता और माता मन में आनन्दित होते हैं। इस पालक को अपना दास जान कर कृपा कीजिए, क्योंकि नाप तो समदर्शी, शीलवान, धीर और हानी मुनि हैं ॥२॥ राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने । कहि कछु लखन बहुरि मुसुकाने ॥ हँसत देखि नख-सिख रिस व्यापी । राम तर माता बड़ पापी ॥३॥ रामचन्द्रजी की बात सुनकर कुछ उण्ढे हुए, फिर लक्ष्मणजी ने कुछ कह कर मुस्कुरा दिया । हँसते देख कर परशुराम को नख से शिखा पर्यन्त क्रोध व्याप गया और बोले-हे राम! तेरा भाई बड़ा पापी है ॥३॥ परशुरामजी को क्रोध हुआ ही है, लक्ष्मणजी को हँसते देख कर उसका बढ़ना, के समान कार्य का वर्णन 'वित्तीय सम अलंकार है। गौर शरीर स्याम मन माहीं। कालकूट -मुख पय-मुख नाहीं ॥ सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीच मीच सम देख न माही ॥४॥ इसका शरीर गोरा है किन्तु यह मन में काला है। दुधमुंहाँ नहीं जहरीले मुखवाला है। स्वभाव ही से टेद तेरी बराबरी का नहीं है, यह नीच मुझे मृत्यु के समान नहीं देखता है॥४॥ सत्य दूध-मुन को असत्य ठहरा कर असत्य विष-मुख को सत्य ठहराना 'शुद्धापहृति अलंकार' है। दा-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि, क्रोध पाप कर मूल । जेहि बस जन अनुचित करहि, होहि बिस्व प्रतिकूल ॥२७७१ लचमणजी ने इस कर कहा-हे मुनि ! सुनिए, क्रोध पाप का मूल है । जिसके अधीन होकर लोग अयोग्य काम करते हैं और जाम से विस्थ हो जाते हैं अर्थात विश्व-विमुखी बन जाते हैं ॥२७॥ कारण