पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३४१

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रामचरित मानस । चौम तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोप करिय अब दाया॥ टूट चाप नहिं जुरहि रिसने । वैठिय हाइहहिं पाय पिराने ॥१॥ हे मुनिगज ! मैं आपका सेवक हूँ, क्रोध त्याग कर अच द्या कीजिए। टूटा मा धनुष क्रोध करने से तो जुटन जायगा, वैठ जाइए पाँव पिराते होगे ॥१॥ जाँ अति प्रिय ती करिय उपाई। जोरिय कोउ बड़ गुनी बालाई । बोलत लखनहिं जनक डेराही । मष्ट करहु अनुचित भलनाहीं ॥२॥ यदि अत्यन्त प्यारा है तो उपाय कीजिए, कोई बड़ा गुणी बुलवा कर जुड़वा दीजिए। लक्ष्मणजी के चोलने में जनक डरते हैं, उन्होंने कहा-अयुक्त कहना अच्छा नहीं चुप रहिए ॥२॥ मुनि की पात लहना ही उचित है, यह व्यक्त है। घर धर कापहि पुर-नर-नारी । छाट कुमार खोट अति मारी । भू गुपति सुनि सुनि निर्भय बानी। रिस तनु जरइ होइ बल हानी ॥३॥ नगर के स्त्री-पुरुष थर थर काँपते हैं और परस्पर कहते हैं कि लड़का छोटा पर बहुत बड़ा खोटा है । लदमणजी की निर्भय वाणी सुन सुन कर परशुराम का शरीर क्रोध से जला जाता है और बल की हानि हो रही है ॥ ३ ॥ बोले रामहि देइ निहोरा । बचउँ बिचारि बन्धु लघु तारा ॥ मन-मलीन तन सुन्दर कैसे । बिष-रस-भरा कनक-घट जैसे ॥४॥ रामचन्द्रजी को एहसान देकर वोले कि तेरा छोटा भाई विचार कर मैं इसे बचाता है। यह मन का मैला और शरीर का कैसा सुन्दर है, जैसे सुवर्ण के घड़े में विष का रस भरा हो ॥५॥ दो०-सुनि लछिमन बिह से बहुरि, नैन तरेरे राम । गुरु- समीप गवने सकुचि, परिहरि बानी बाम ॥२८॥ सुन कर लक्ष्मणजी फिर हँसे और रामचन्द्रजी ने आँख के इशारे से रोक दिया। सकुचा कर विपरीत वाणी को त्याग कर गुरु के पास चले गये ॥२७॥ लक्ष्मण को हँसते देख कर गमचन्द्रजी समझ गये कि फिर कुछ कहेंगे, तब आँखों के इशारे से वर्जन करना 'सूक्ष्म अलंकार' है। चौ०-अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले राम जोरि जुग पानी॥ सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना । बालक बचन करिय नहिँ काना ॥ अत्यन्त नन्नता से दोनों हाथ जोड़ कर रामचन्द्रजी कोमल और शीतल वचन बोखे । हे नाथ ! सुनिए, आप बसाव से हो चतुर हैं, बालक की बात पर कान न कीजिए ॥१॥