पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बररे बालक प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २६३ एक . सुभाऊ । इन्हहिँ न बिदुष बिदूषहिँ काऊ ॥ तेहि नाही कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा ॥२॥ बरै और बालक का स्वभाव एक है; इन्हें धीमान् कभी नहीं छेड़ते । नाथ ! उसने कुछ काम नहीं बिगाड़ा, आपका अपराधी तो मैं हूँ ॥२॥ कृपा कोप बध बन्ध गोसाँई । मो पर करिय दास की नाँई । कहिय बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनि-नायक सोइ करउँ उपाई ॥३॥ हे स्वामिन् ! कृपा, काध, वध या बन्धन मुझ पर सेवक की भाँति कीजिए। हे मुनिराज ! जिस प्रकार से शीघ्र आप का क्रोध दूर हो कहिए, मैं यही उपाय कर ॥ ३॥ 'दास की नाई इस वाक्य में लक्षणामूलक विवक्षितवाच्य ध्वनि है कि सेवक पर कृपा की जाती हो तो दया कीजिए अथवा क्रोध, वध, बन्धन किया जाता तो वही कीजिए। जिसमें आप का क्रोध शान्त हो, मैं हर प्रकार यत्न करने को तैयार हूँ। कह मुनि राम जाइ रिस कैसे। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसे। एहि के कंठ कुठार न दीन्हा । तो मैं कोह कोप करि कीन्हा ॥४॥ मुनि ने कहा-हे राम ! मेरा क्रोध कैसे जाय ? अब भी तेरा छोटा भाई धुरी निगाह से निहारता है । इसके गले पर कुल्हाड़ा नहीं दिया तो मैं ने क्रोध ही कर के क्या किया ॥४॥ लक्ष्मणजी की चितवन से उनके उत्कर्ष को न सह सकने की क्षमता प्रसूया अचारी- भाव है। दो०-गर्भ सवहि अवनिप-रवनि, सुनि कुठार-गति-घोर। परसु अछत्त देखउँ जियत, बैरी भूप किसोर ॥२६॥ जिस कुल्हाड़े की भीषण करनी को सुन कर राजाओं की स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं। वही फरसो मौजूद रहते मैं शत्र, राजकुमार को जीवित देखता हूँ॥ २७६ ॥ उपायापाय चिन्ताजन्य भनाभन से 'विषाद और उलानि सवारीभाव' है। चौ०-बहइ न हाथ दहइ रिस छाती। मा कुठार कुठित प-घाती। भयेउ बाम विधि फिरेउ सुभाऊ । मारे हृदय कृपा कसि काऊ॥१॥ हाथ चेलता नहीं; क्रोध से छाती जली जाती है, राजाओं का घातक कुल्हाडा गोठिल हो गया । विधाता विपरीत हुए जिससे मेरा स्वभाव ही बदल गया, नहीं तो मेरे हृदय में कभी कृपा कैसी ॥१॥ मैं दया करनेवाला नहीं हूँ, यह व्यतार्थ वाच्यार्थ के बराबर तुल्यप्रधान गुणीभूत !