पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३४३

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२४ रामचरित मानस । आजु दया दुख दुसह सहावा । सुनि सौमित्रि विहँसि सिर नावा। बाउ-कृपा मूरति अनुकूलो । बोलत बचन झरत जनु फूला ॥२॥ अाज दया ने मुझे असहनीय दुःस सहाया, यह सुन कर लक्ष्मणजी ने हंस कर मस्तक.. नवाया और चोले-मति के अनुसार ही रुपा रुपी वायु है, इसी से जो नाप वचन बोलते हैं वह ऐसा मालूम होता है मानों फूल झरता हो ॥२॥ पवन बहने से फूल झरता ही है, मूर्वि कपी वृक्ष से कृपा कपी पवन के झकोरे को पाकर वचन रूपी फूल झरते हैं। यह रूपक का अही 'उक्तविश्वा वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। रुपा, अनुकूल-मूर्ति और फूल का झरना अपने अपने घाच्यार्थ को छोड़ कर सद्विपरीत अर्थ अर्थात् कोप, प्रतिकूल-मूर्ति और विप झरने का बोध कराते हैं । यह लक्षणामूलक अविवक्षित वाच्य ध्वनि है। जौँ पै कृपा जरहिँ मुनि गाता । क्रोध भये तनु राखु विधाता ॥ देखु जनक हठि बालक एहू । कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू ॥३॥ हे मुनि ! यदि कृपा से आग जलते है तो क्रोध होने पर शरीर की रक्षा ब्रह्मा ही करते होंगे ? परशुरामजी बोले-दे जनक ! देखो, यह मूर्ख बालक हठ कर के यमपुरी में घर करना चाहता है॥३॥ बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढाटा ॥ बिहँसे लखन कहा मन माहीं । मूंदे आँखि कतहुँ कोउ नाहीं wen इसको शीघ्र ही आँख की आड़ में क्यों नहीं करते १ यह राजकुमार देखने में छोटा है, पर है बड़ा खोटा। लक्ष्मणजी ने हँस कर मन में कहा-आँख मदने पर कहीं कोई नहीं है ॥४॥ सभा की प्रति में "बिह से लपन कहा मुनि पाहाँ पाठ है,वहाँ अर्थ होगा मुनि से कहा- नहीं देखते बनता है तो आँखें बन्द कर लीजिए, इस व्यज्ञार्थ और बाच्या में तुल्य चमत्कार होने से गुणीभूत व्यङ्ग है। दोश-परसुराम तब राम प्रति, बोले उर अति क्रोध । सम्भु सरासन तारि संठ, करसि हमार प्रबोध ॥२०॥ तव परशुराम हदय में प्रत्यन्त क्रोध कर के रामचन्द्रजी से बोले । अरे मूर्ख ! शिवजी का. धनुष तोड़ कर दू मुझे समझाता है ॥२०॥ पूज्य पुरुष पर अवथार्थ क्रोध प्रकाशित करना 'रोदरसाशास' है। चौण बन्धु कहइ कटु सम्मत तेरे । तू छल बिनय करसि कर जारे । करु परितोष मार सङ्कामो । नाहि त छाडु कहाउब रामा ॥१॥ भाई तेरी सलाह से कड़वी बाते कहता है और तू कपट से हाथ जोड़ कर बिनती करता है। युद्ध में मेरी तृप्ति कर, नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे ॥१॥