पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३४५

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राम २९६ रामनरित-मानस । चौ०-देखि कुठार बान-धनु-धारी । भइ लरिकहि रिस बीर बिचारी॥ नाम जान पै तुम्हहिँ न चीन्हा । बंस सुभाउ उतर तेहि दीन्हा ॥१॥ कुल्हाड़ा, बाण और धनुष धारण किए देख चोर समझ कर लड़के को क्रोध हुआ। नाम जानता है पर श्राप को पहचाना नहीं, वंश के स्वभावानुार उत्तर दिया ॥१॥ 'वीर विचारी' पद से वीरत्व का वाध हो र ब्राह्मण मुनि होने की व्या है। तुम्ह अवतेहु मुनि की नाँई । पद-रज सिर सिसु धरत गोसाँई। छमहु चूक अनजानत केरी । चहिय विप्र उर कृपा घनेरी ॥२॥ यदि आप मुनि की तरह पाते तो हे स्वामिन् ! बालक आपके चरणों की धूल सिर पर धारण करता। विना जाने की भूल को क्षमा कीजिप, धामण के हदय में बड़ी दया होनी चाहिए ॥२॥ हमाहि तुम्हहिँ सरबरि कस नाथा । कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा ॥ मात्र लघु नाम हमारो । परसु सहित बड़ नाम तुम्हारा ॥३॥ हे नाथ ! हम से और श्राप से हुज्जत कैसी ? कहिए न ! कहाँ पाँव और कहाँ मस्तक । हमारा नाम छोटा सा राम मात्र है और 'परशु के सहित आप का बड़ा नाम (परशु- राम) है ॥ अपनी लघुता और परशुराम की श्रेष्ठता व्यजित करने में लक्षणामूलक गूढ़ व्या है कि मैं चरण का देवता और आप सिर के देव हैं। देव एक गुन धनुष हमारे । नव गुन परम-पुनीत तुम्हारे । सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे । छमहु बिप्र अपराध हमारे ॥४॥ हे देव हमारे तो एक गुण धनुष है और आप के अत्युत्तम पवित्र नौ गुण प्रकार से आप से हारे हैं, हे ब्राह्मण ! हमारे अपराध को क्षमा कीजिए ॥३॥ परशुराम के नवों गुणों को, परम पुनीत कहने से अपने एक गुण में अपुनीतता म्यजित करने की ध्वनि है कि वह हत्या करने के सिवा और कुछ नहीं। आप के नौ गुण कोमलता, तपी, सन्तोषी, क्षमावान, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, दाता, शूर और दयालु एक से एक बढ़ कर पवित्र है दो०-बार बार मुनि विप्र घर, कहा राम सन राम ! बोले भृगुपति सरुष हसि, तहूँ बन्धु सम बाम ॥ २२ ॥ रामचन्द्रजी ने बार बार परशुरामजी को मुनि, विप्रवर कहा (पीर या सुभट का एक धार भी सम्बोधन नहीं किया) दव परशुरामजी कुध होकर बोले कि तू भी भाई के समान टेढ़ा है ।। २.२॥ ।