पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३४७

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रामचरिन मानस । २८ छत्रिय धरि समर सकाना । कुल-कलङ्क तेहि पावर जाना ॥ कहउँ सुभाव न कुलहि प्रसंसी । कालहु डरहिन रन रघुवंसी ॥२॥ क्षत्रिय का शरीर धर कर युद्ध से डरा तो उसको कुल का कलङ्क और अधम जानना चाहिए। मैं कुल की प्रशंसा नहीं करता है वरन् सहज स्वभाष कहता हूँ कि रघुवंशी संग्राम में काल से भी नहीं डरते ॥२॥ बिन-बस के असि प्रभुताई । अभय हाइ जो तुम्हहिं डेराई । सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपति के । उघरे पटल परसुधर-मति के ॥३॥ ब्राह्मण-वंश की पेशी महिमा है कि जो आप को डरता है वह निर्भय हो जाता है। रघुनाथजी के अभिप्राय-गर्मित कोमल वचन सुन कर परशुरामजी की बुद्धि का पड़ा खुल भया॥३॥ जो ब्राह्मण को डरता है यह निर्भय हो जाता है, कारण से विरुद्ध कार्य का उत्प होना 'पचम विभावना अलंकार' है। राम रमापति कर धनु लेहू । खैचहु मार मिटै सन्देहू ॥ देत चाप आपुहि चलि गयऊ । परसुराम मन बिसमय भयऊ in परशुरामजी ने कहा-हे रामचन्द्र ! विष्णु का धनुष लीजिए और इसको बैंच कर पड़ा दीजिए तो मेरा सन्देह मिट जाय। ऐसा कह कर धनुष देने लगे तो वह आप ही भाप रामचन्द्रजी के हाथ में चला गया, यह देख कर परशुरामजी के मन में खेद हुश्रा ( मुझ से बड़ी भूल हुई ॥४॥ एकवार विष्णु भगवान् ने प्रसन्न होकर परशुरामजी को अपना शाई धनुप देकर कहा- पृथ्वी पर जो कोई इस धनुष को चढ़ा दे, उसको मेरा अवतार लमझ कर तुम यह धनुष दे देना। उस पूर्व वचन का परशुरामजी को याद भाना 'स्मरण अलंकार' है । देने के पहले ही धनुष का रामचन्द्र जी के हाथ में स्वयमू चला जाना 'अत्यन्तातिशयोक्ति अलंकारर है। अपनी भूल से न कहने योग्य बाते कह डालने से चिन्ताजन्य मनाम का उत्पन्न होना 'विषाद सवारीभाव है। दो-जाना राम प्रभाव तब, पुलक प्रफुल्लित गात । जोरि पानि बोले बचन, हृदय न प्रेम अमात ॥२८॥ जब रामचन्द्रजी के प्रमोष को जान लिया तव शरीर प्रेम से पुलकायमान हो गया। हृदय में प्रीति अंटती नहीं (रमड़ी पड़वी) है, हाथ जोड़ कर पचन बोले ॥ २४॥ यहाँ 'राम' शब्द श्लेषार्थी है। परशुराम और रामचन्द्रजी दोनों का बोधक है। परशुरामजी के कोपभाष की शान्ति ईश्वरानुराग रूपो रतिभाय के अझ से होना 'समाहित अलंकार है। .