पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३४८

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. प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २०६ चौ०-जय रघुबंस-बनज-बन-मोनू । गहन-दनुज-कुल दहन-कसानू ॥ जय सुर-बिन-धेनु-हितकारी । जय मद मोह-कोह-मभ-हारी ॥१॥ रघुकुल रूपी कगल-वन के सूर्य और राक्षसवंश रूपी जङ्गल के जलानेवाले दावानल आप की जय हो । देवता, ब्राहाण, गैया के हितकारी जय हो, घमण्ड, प्रशान, क्रोध और भ्रम के हरनेवाले आप की जय हो॥१॥ बिनय-सील करुना-गुन सागर । जयति बचन-रचना अति नागर ।। सेवक-सुखद सुभग सब अङ्गा । जय सरीर छबि कोटि अनङ्गा ॥२॥ नम्रता, शील, दया और गुण के समुद्र, बचनों की रचना में बड़े चतुर सेवकों के सुख देनेवाले, सब अङ्ग सुन्दर करोड़ों कामदेव की छवि से युक्त शरीरवाले आप की जय हो ॥२॥ करउँ काह मुख एक प्रसंसा । जय महेस मन मानस हंसा ॥ अनुचित बहुत कहेउँ अज्ञाता । छम छमा मन्दिर दोउ माता ॥३॥ एक मुख से में क्या प्रशंसा करूँ, शिवजी के मन रूपी मानसरोवर के ईस आप की जय हो। मैं ने विना जाने बहुत अनुचित होते कहीं, आप दोनों भाई क्षमा के मन्दिर हैं, क्षमा कीजिये ॥३॥ अनजान में अनुचित वचन कहने का परशुरामजी के मन में सोच उत्पन्न होना बीड़ा सनारी भाव है। कहि जय जय जय रघुकुलकेतू । भृगुपति गये बनहिँ तप-हेतू ॥ अपभय कुटिल महीप डेराने । जहँ तह कायर गँवहिं पराने ॥४॥ रघुकुल के पताका रूप रामचन्द्रजी का बारम्बार जय जयकार कर के परशुरामजी तपस्या के लिए बन को गये। यह देख कर दुष्ट राजा अपने ही डर से डरे, वे डरपोक जहाँ तहाँ गँव से भाग गये ॥४॥ सभा की प्रति में अपमय सकल महीप डेराने पाठ है। दो०-देवन्ह दीन्ही दुन्दभी, प्रभु पर बरषहिँ फूल। हर पुर-नर-नारि सब, मिटा मोह-मय-सूल ॥२८॥ देवता-गण नगारे बजा कर प्रभु रामचन्द्रजी पर फूल बरसाते हैं। नगर के स्त्री-पुरुष सब का ज्ञान से उत्पन्न दुःख मिट गया वे हर्षित हुए ॥ २८५ ॥ पहले लोग शोक-भाव में मग्न थे, परशुरामजी को स्तुति कर के जाते देख पहला भाव मिट कर हर्ष सञ्चारी का उदय होना 'भावशास्ति' है। चौ-अति गहगहे बाजने बाजे। सहि मनोहर मङ्गल साजे ॥ जूथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनी । करहिं गान कल कोकिल-बयनी ॥१॥ अत्यन्त धूम के साथ माजे बजने लगे, सभी ने मनोहारी माल साज सजे । सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रवाली कोयत के समान पाणीवाली अरड़ की झुण्ड स्त्रियाँ सुन्दर गान करती हैं ॥१॥