पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३५१

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१ रामचरित मानस । किये भृङ्ग बहु र बिहङ्गा । गुजहिँ कूहिँ पवन प्रसङ्गा ।। सुर-प्रतिमा खम्झन्हि गढ़ि काढी । मङ्गल-द्रव्य लिये सब ठाढ़ी ॥३॥ भवरे और पक्षी बहुत रङ्ग के बनाये, वे हवा के सम्बन्ध से गुञ्जारते और वोलते हैं। देव- ताम्रा की मूर्तियाँ सम्भों में गढ़ कर निकाली, वे माङ्गलीक वस्तु लिये हुए बड़ी हैं ॥ ३ ॥ चौ भाँति अनेक पुराई । सिन्धुर-मनि मय सहज सुहाई ॥४॥ गज-मोतियों के सहज ही सुहावने अनेक तरह के चौक पुरवाये ॥४॥ दो०-सौरम-पल्लव सुभग सुठि, किये नीलमनि कोरि। हेम-बौर मरकत-धवार, लसत पाट-मय डोरि ॥२८॥ नीलमको फोर कर अत्यन्त शोभन श्राम के पते बनाये। सुवर्ण के चौर (आम के फूल ) उनमें पन्ना के फलों के गुच्छे लगाये, वे रेशम की (लाल रह) डोरी में शोभित हो.' रहे हैं ॥ २॥ चौ०-२चे रुचिर बर बन्दनवारे । मनहुँ मनोभव फन्द सँवारे । मङ्गल-कलस अनेक बनाये । ध्वज पताक पर चवर सुहाये ॥१॥ मुन्दर अच्छे बन्दनवार बनाये, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों कामदेव ने फन्दा सजाया हो। असंख्यों माल के कलशे, वजा, पताका, वन और सुहावने चघर बनाये ॥१॥ दीप मनोहर मनि-मय नाना । जाइन अरनि विचित्र बितानां ॥ जेहि मंडप दुलहिनि बैदेही । सो बरनइ असि मति कधि केही २॥ नाना प्रकार के मनेाहर भणियों के दीपक बनाये, उन विलक्षण मएडयों का वर्णन नहीं किया जा सकता। जिस मण्डप में जामकोजी दुलहिन हैं, (जो राजा जनक के महल में पना है) किस कवि की ऐसी बुद्धि है कि उसका वर्णन कर सके ॥२॥ दूलह राम रूप-गुन-सागर । सो वितान तिहुँ लोक उजागर ॥ जनक-भवन कै. सौआ जैसी । गृह गृह प्रति पुर देखिय तैसी ॥३॥ रूप और गुण के समुद्र रामचन्द्रजी दूलह हैं, वह मण्डप तीनों लोकों में विख्यात है। जैसी राजा जनक के महत की शोभा है, नगर में घर घर वैसी ही सजावट देखने में आती है ॥ ३॥ . जेहि तिरहुति तेहि समय निहारी । तेहि लघु लोग भुवन दस-चारी जो सम्पदा नीच गृह सोहा । सेा बिलोकि सुरनायक महा in जिसने उस समय मिथिलापुरी को देखा, उसको चौदहों लोकों का ऐश्वर्या थोड़ा लगा। जो सम्पति नीच के घर में विराज रही है, वह देख कर इन्द्र मोहित हो जाते हैं ॥४॥