पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३५२

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । दोबसइ नगरजेहि लच्छि करि, कपट नारि बर बेष ॥ तेहि पुर के सोभा कहत, सकुचहिँ सारद सेष ॥२९॥ जिस नगर में लक्ष्मीजी कपट से सुन्दर स्त्री का वेष बना कर रहती हैं। उस नगर की शोभा कहते हुए सरस्वती और शेष सकुचा जाते हैं ॥२४॥ चौ०-पहुँचे दूत राम-पुर पावन । हरष नगर बिलोकि सुहावन । भूप-द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दुसरथ नृप सुनि लिये बोलाई ॥१॥ रामचन्द्रजी के पवित्र नगर (अयोध्या ) में दूत पहुँच गये, सुहावनी पुरी को देख कर प्रसन्न हुए । राजद्वार पर जा कर उन्होंने खबर जनाई, सुन कर महाराज दशरथजी ने बुलवा लिया ॥१॥ करि प्रनाम तिन्ह पाती दोन्ही । मुदित महीप आप उठि लीन्ही ॥ बारि-बिलोचन बाँचत पाती । पुलक गात आई भरि छाती ॥२॥ प्रणाम कर के उन दूतों ने चिट्ठी दी, प्रसन्नता से स्वयम् उठ कर राजा ने ली । पत्रिका बाँचते समय नेत्रों में जल भर पाया, शरीर पुलकित हो गया और प्रीति से छाती भर आई ॥२॥ राम-लखन-उर कर-नर-चीठी। रहि गये कहत न खाटी मीठी॥ पुंनि धरि धीर पत्रिका बाँचो । हरषी सभा बात सुनि साँची ॥३॥ राम-लक्ष्मण की मूर्ति दय में और वह श्रेष्ठ चिट्ठी हाथ में है, खट्टी मीठी कुछ कहते नहीं, चुप रह गये। फिर धीरज धर कर पत्रिका को पढ़ा, सच्ची बात सुन कर सभा प्रसन्न हुई ॥३॥ पत्रिका के पाते ही प्रेम से राजा के चित्त में विवेक शून्यता को उत्पन्न होना जड़ता सञ्चारीभोव' है। फिर साहस द्वारा चित्त को डढ़ करना 'धृति सञ्चारीभाव' है। जड़ता को धृति सञ्चारी ने दवा दिया, यह माव सबलता है। खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आये भरत सहित हित भाई ॥ पूछत अति सनेह सकुचाई तात कहाँ से पाती आई ॥४॥ भरतजी हितैषी बन्धु के सहित जहाँ खेलते थे वहाँ खबर पा कर सभा में आये और अत्यन्त स्नेह से सकुचा कर पूछते हैं कि हे तात ! कहाँ से चिट्ठी आई है ? ॥४॥ 'हे तात! यह पाती कहाँ से आई है। इसी प्रश्न से उत्तर भी निकलता है कि तात रामचन्द्र के यहाँ से चिट्ठी आई है। यह प्रथम चित्रोचर अलंकार' है। दोष कुसल प्रान प्रिय बन्धु दोउ, अहहिँ कहहु केहि देस । सुनि सनेह-साने-पचन, बाँची बहुरि नरेस ॥२०॥ प्राण प्यारे दोनों भाई कहिए किस देश में हैं और कुशल से हैं ? स्नेह से मिले वचन सुन कर राजा ने फिर चिट्ठी बाँच कर सुनाई ॥२६॥