पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। २९४ शामचरितमानस चौ०-मुनि पाती पुलके दोउ भ्राता । अधिक सनेह समात न गाता । प्रीति पुनीत भरत कै देखी । सकल सभा सुख लहे उ बिसेखी ॥१॥ चिट्ठी सुन कर दोनों भाई प्रसन्न हुए. इतना अधिक स्नेह दुना कि अंगों में समाता नहीं है। भरतजी की पवित्र प्रीति देख कर सारी सभा विशेष आनन्द को प्राप्त हुई ॥१॥ तब नृप दूत निकट बैठारे । मधुर मनोहर बचन उचारे ॥ भैया कहहु कुसल दोउ बारे । तुम्ह नीके निज नयन निहारे ॥२॥ तब राजा ने दूतों को पास में बैठा कर मीठे और मनोहर वचन बोले:-हे भइया ! कहो, तुमने अपनी आँखों से उन्हें अच्छी तरह देखा है ॥२॥ स्थामल गौर धरे धनु भाथा । बय-किसोर कैासिक मुनि साथा ॥ पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ । प्रेम-बिबस पुनि पुनि कह राज॥३॥ श्यामल गौर वर्थ धनुप और तरकस धारण किए, किशोर अवस्थावाले विश्वामित्र मुनि के साथ हैं। तुम उन्हें पहचानते हो तो उनका स्वभाव कहो, प्रेम के अधीन हो कर राजा वार वार कहते हैं ॥३n जा दिन तैं मुनि गयउ लेवाई। तब तँ आजु साँचि सुधि पाई ॥ कहहु बिदेह कवनि विधि जाने । सुनि प्रिय बचन दूत मुसुकाने ॥४॥ जिस दिन से मुनि लिवा ले गये, तब से आज ही सच्ची खबर मिली है। कहो, विदेह राजा ने उन्हें किस तरह पहचाना ? इस प्रकार प्यारी वाणी सुन कर दूत मुस्कुराये ॥४॥ दूतों का तत्वानुसन्धान द्वारा महाराज के ऐश्वर्य, पुत्र प्रेम और सरलता को विचार कर आश्चर्य से मन में मुस्कुराना 'मतिसञ्चारीभाव' है। दो..सुनहु महीपति मुकुट-मनि, तुम्ह सम धन्य न कोउ । राम लखन जाके तनय, बिस्व-विभूषन दोउ ॥२१॥ दूत बोले-हे राजाओं के मुकुटमणि ! सुनिए, आप के समान धन्य कोई नहीं है, जगत् के भूषण रामचन्द्र और लक्षमण दोनों जिनके पुत्र हैं ॥ २१ ॥ चौ--पूछन जोग न तनय तुम्हारे । पुरुष-सिंह तिहुँ पुर उँजियारे ॥ जिन्ह के जस-प्रताप के आगे । ससि मलीन रबि सीतल लागे ॥१॥ के पुन पूछने योग्य नहीं हैं, वे पुरुषों में सिंह और तीनों लोगों में उजागर है। जिनके यश एवम् प्रताप के सामने चन्द्रमा मलिन तथा सूर्य शीतल लगते हैं ॥१॥ तिन्ह कहँ कहिय नाथ किमि चीन्हे । देखिय रबि कि दीप कर लीन्हे ॥ अनेका । समिटे सुभट एक तँ एका ॥२॥ हे नाथ ! आप कहते हैं कि उनको कैले पहचाना? क्या सूर्य को हाथ में दीपक ले कर देखना होता है | साताजी के स्वयम्बर में असंख्यों राजा एक से एक शूरवीर इकट्ठे हुए थे ॥२॥

आप सीय-स्वयम्बर भप