पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २९५ प्रस्तुत वर्णन तो यह है कि श्राप के पुत्र स्वयम् प्रसिद्ध है, उनके यश-प्रताप को कौन नहीं जानता पर यह सीधे न कह कर उसका प्रतिबिम्ब मात्र कथन करना कि क्यो कोई सूर्य को हाथ में चिराग लेशर देखता है ? 'ललित अलंकार' है। सम्मु-सरासन काहु न टारा। हारे सकल बीर बरियारा॥ तीनि लोक महँ जे भट मानी । सब कै सकति सम्भुधनु मानी ॥३॥ शिवजी के धनुष को किसी ने नहीं हटाया, सारे यलवान् वीर हार गये। सीनों लोकों में जो अभिमानी योद्धा थे, शङ्कर-चाप ने सब की शक्ति का नाश कर डाला ॥३॥ सकइ उठाइ सरासुर मेरू । सेोउ हिय हारि गयउ करि फेरू । जेहि कौतुझ सिव-सैल उठावा । सेउ तेहि सा पराभव पावो ॥४॥ जो वाणासुर सुमेरु को उठा सकता है, वह भी हृदय में हार फेरा डाल कर चला गया । जिसने खेल ही में कैलास पर्वत को उठा लिया था, उस सभा में वह भी हार को प्राप्त दुधा॥४॥ रावण का नाम सीधे न ले कर यह कहना कि जिसने शिव-शैल उठाया था वह भी पराजित हुआ 'प्रथम पर्यायोक्ति अलंकार' है। दो०--तहाँ राम-रघुबंस-मनि, सुनिय महा-महिपाल । भजेउ चांप प्रयास बिनु, जिमि गज पङ्कज-नाल ॥२२॥ महाराजाधिराज! सुनिए, रघ कुल-मणि रामचन्द्रजी ने उस सभा में बिना परिश्रम ही इस तरह धनुष को तोड़ डाला जैसे हाथी कमल की डण्ठा को तोड़ता है ॥ २२ ॥ चौ०--सुनि सरोष भृगुनायक आये। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाये ॥ देखि राम बल निज धनु दीन्हा । करि बहु बिनय गवनबनकीन्हा ॥१॥ (धनुष का टूटना) सुन कर क्रोध के साथ परशुरामजी आये और उन्होंने बहुत तरह से आँख दिखाई । रामचन्द्रजी का बल देख कर अपना धनुष दे दिया और बहुत सी बिनती कर के बन को चले गये ॥१॥ राजन राम अतुल बल जैसे। तेज-निधान लखन पुनि तैसे॥ कम्पहिं भूप घिलोकत जाके । जिमि गज हरि-किसोर के तोके ॥२॥ राजन् । जैसे रामचन्द्रजी अतुल पराक्रमी हैं वैसें ही फिर लक्ष्मणजी तेज के स्थान हैं। जिनके निहारने से राजा लोग ऐसे काँपते हैं, जैसे किशोर अवस्थावाले सिंह के देखने से हाथी काँपता है ॥२॥ चौपाई के पूर्वाद्ध में रामचन्द्र और लक्ष्मणजी के प्रतापवान होने का वर्णन है। प्रथम उपमेय वाक्य और दूसरा उपमान वाक्ष्य है । 'अतुलरल' और 'तेजनिधान' एकार्थवाची शब्दों सारा दोनों का एक धर्म कथन 'प्रतिवस्तूपमा अलंकार' है।