पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३५५

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पागी ॥३॥ रामचरित मानस । २६ देव देखि तव बालक दोऊ । अब न आँखि तर आवत कोऊ॥ दूत बचन-रचना प्रिय लागी । प्रेम-प्रताप-बीररस हे देव ! श्राप के दोनों पालकों को देख कर अब कोई आँस के नीचे नहीं पाता है । दूतों की वाक्य रचना-प्रेम, प्रताप और वीररस से पगी हुई समझ कर, सब को प्रिय लागी ॥३॥ सभा समेत राउ अनुरागे । दूतन्ह देन निछावरि लागे । कहि अनीति ते मूदहिँ काना । धरम बिचारि सबहि सुख माना na सभा के सहित राजा प्रेम से प्रसन्न होकर दूतों को न्योछावर देने लगे। वे कान मुंद कर कहते हैं कि ऐसा करना नीति के विरुद्ध है, धर्म विचार कर सभा के सब लोग सुख मानते हैं ॥४॥ कन्यापक्ष के मनुष्यों का वर पक्ष ले पुरस्कार लेना अनुचित है। यह व्यज्ञार्थ वाच्यार्थ के बराबर होने से तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यंग है। दो-तब उठि भूप बसिष्ठ कह, दोन्हि पत्रिका जाइ। कथा सुनाई गुरुहि सब, सोदर दूत बोलाई ॥२३॥ तब राजा उठ कर वशिष्ठजी के पास गये और उन्हें चिट्ठी दी । आदर के साथ दूतों को बुलवा कर सारी कथा गुरुजी को सुनाई ॥३॥ चौ--सुनि बोले गुरु अति सुख पाई । पुन्य-पुरुष कहँ महि सुख छाई ॥ जिमि सरिता सागर मह जोही । जद्यपि ताहि कामना नाहीं ॥१॥ सुन कर गुरुजी अत्यन्त आनन्दित होकर बोले कि पुण्यात्मा-पुरुष को धरती सुन से छाई रहती है। जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि उसको इच्छा नहीं रहती तिमि सुख सम्पति धिनहि बोलाये । घरमसील पहि जाहिँ सुभाये ॥ तुम्ह गुरु-विप्र-धेनु-सुर सेबी । तसि पुनीत कासल्या देबी ॥२॥ वैसे ही सुख-सम्पत्ति बिना बुलाये धर्मात्मा के पास स्वाभाविक हो जाते हैं। आप जैसे गुरु, ब्राह्मण, गैया और देवता के सेवक हैं, वैसी ही पवित्र कौशल्या देवी हैं ॥२॥ सुकृत्ती तुम्ह समान जग माहीं। मयउ न है कोउ होनेउँ नाहीं॥ तुम्ह से अधिक पुन्य बड़ का के । राजन राम सरिस सुत जा के ॥३॥ श्राप के समान संसार में पुण्यात्मा न कोई हुआ, न है और न होने ही वाला है । राजन् ! आप से बढ़ कर बड़ा पुण्य किसका है कि जिनके रामचन्दजी के समान पुत्र हैं ? ॥३॥ बीर बिनीत धरम-व्रत धारी । गुन-सागर बर बालक चारी ॥ तुम्ह कह सर्व काल कल्याना । सजहु बरात बजाइ निसाना ॥४॥ आप के चारों पुत्र सुन्दर शूर, नन्न, धर्म प्रत धारण करनेवाले और गुणों के समुद्र है। आप को सदा कल्याण है, उश बजा कर वारात सजवाइए १०॥ ॥