पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३६१

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रामचरित मानस । ३०२ भागध सूत बन्दि गुन गायक । चले जान चढ़ि जो जेहि लायक ॥ बेसर ऊँट शुषस बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती मागध, सूत, पन्दीजन और गुण गानेवाले जो जिस योग्य हैं, वे सवारियों पर चढ़ कर चले । खच्चर, ऊँट और बहुत जाति के वैलों पर असंख्यों प्रकार की वस्तुएँ भर भर कर लेषक-गण ले चले ॥३॥ कोटिन्ह काँवरि घले कहारा । बिबिध बस्तु को बरनइ पारा । चले सकल सेवक-समुदाई । निज निज साज समाज बनाई ॥१॥ करोड़ो काँवरि ले कर कहार चले, उनमें तरह तरह की चीजों का वर्णन कर कौन पार पा सकता है ? अपनी अपनी तैयारी से समाज यना कर झुण्ड के झुण्ड समस्त नौकर लोग चले ॥४॥ दो-सब के उर निर्भर हरष, पूरित पुलक सरीर । कहि देखिबइ नयन भरि, राम लखन दोउ बीर ॥३०॥ सब के इदय में हर्ष भरा हुआ है और शरीर पुलक से परिपूर्ण है कि रामचन्द्र और लक्ष्मण दोन चोरों को आँख भर कर देखूगा ? ॥३०॥ जनकपुर में पहुँचने और शुगत बन्धुओं के दर्शन की अक्षमता 'उत्सुकता सवारी भाष' है। चौ०-गरजहिँ गज घटा धुनि घोरा । रथ-रव बाजि हिँसहिँ चहुँ ओराम निदरि घनहि घुम्मरहिँ निसाना । निज पराइ कछु सुनिय न काना ॥१॥ हाथी गरज हैं, घरटे की भीषण ध्वमि, रथों के शब्द और घोड़ों का हिनहिनाना चारों ओर होरहा है । बादलों का निरादर कर के ऊँचे शब्द में नगाड़े बजते हैं, अपना पराया कुछ कान ले सुमाई नहीं देता है ॥१॥ महा भीर भूपति के द्वारे । रज होइ जोइ पखान पबारे ॥ चढ़ी अदारिन्ह देखहि नारी । लिये आरती मङ्गल थारी ॥२॥ राजा दशरथजी के दरवाजे पर बहुत बड़ी भीड़ हुई, पत्थर फेंका जाय तो धूल हो जायगा । स्त्रियाँ हाथ में मङ्गलीक भारती थारों में लिए अटारिश पर चढ़ी देखती हैं ॥२॥ एक तिलककार ने लिखा कि राजा जनक के द्वारे इतनी भीड़ दुई कि पत्थर डाल दे तो चूर हो जाय पर अभी वर्णन अयोध्यापुरी से वारात के प्रस्थान का हो रहा है, जनकद्वार कहना सर्वथा अप्रासङ्गिक और भ्रान्तिमूलक है। गावहिँ गीत मनोहर नाना । अति आनन्द न जाइ बखाना ॥ तब सुमन्त्र दुइ स्यन्दन साजी। जोते रबि-हय-निन्दक बाजी ॥३॥ नामो प्रकार के सुन्दर गीत गाती हैं. और बहुत बड़ा आनन्द कहा नहीं जा सकता। तब सुमन्त्र ने हो रथ सजाये और सूर्य के घोड़े की निन्दा करनेवाले घोड़े उममें जोते ॥३॥ .