पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३६४

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड | ३०५ दो०-मङ्गल-मय कल्यान-मय, अमिलत-फल दातार । जनु सब साँचे होन हित, अये सगुन एक बार ॥३०॥ मङ्गलमय कल्याण के रूप मनवामिछत फल के देनेवाले सब सगुन भानों सत्य होने के लिए एक साथ ही हुए ॥ ३०३ ॥ जड़ शकुनों में सत्य होने की समता प्राप्ति रूपी फल की इच्छा का होना असिद्ध आधार है और यह कहना कि उसी फल की प्राप्ति के लिए सगुन बरात के सामने प्रकट हुए हैं इस अफल को फल कल्पित करना सिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा अलंकार' है। चौ०-मङ्गल सगुन सुगम सब ताके । सगुन-ब्रह्म सुन्दर सुत जा के । राम सरिस बर दुलहिन सीता । समधी दसरथ जनक पुनीता ॥१॥ जिनके सगुण-ग्रहा सुन्दर पुत्र हैं, उनके लिए सभी मंगल शकुन सुलभ हैं । रामचन्द्रजी के समान दूलई और सीताजी दुलहिन, दशरथजी एवम् जनकजी पवित्र समधी हैं ॥१॥ उन्हें सव मङ्गलीक शकुन सुगम हैं, इस का हेतु सूचक बात कह कर समर्थन करना कि जिनके सगुण-नाम पुत्र हुए हैं 'कायलिन अलंकार है। सुनि अस ब्याह सगुन सब नाँचे । अब कीन्हे बिरचि हम साँचे । एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना । हय गय गाजहिं हने निसाना ॥२॥ ऐसा ब्याह सुन कर सब सगुन नाचने लगे, उन्होंने सोचा कि अब ब्रह्मा ने हमें सच्चा किया । इस तरह परात ने कूच किया, हाथी घोड़े गर्जते हैं और डडा बजाते जाते हैं ॥ २॥ शकुन सब जड़ हैं, उनका यह समझना कि अब विधाता ने मुझे सच्चा किया, इस खुशी में नाचना प्रसिद्ध आधार है। पिना चावक पद के ऐसी कल्पना करना 'ललितोत्प्रेक्षा अलंकार है। आवत। जानि भानु-कुलकेतू । सरितन्हि जनक बँधाये सेतू ॥ बीच बीच बर बास बनाये । सुरपुर-सरिस सम्पदा छाये ॥३॥ सूर्यकुल के पताका (दशरथजी) को प्राते हुए जानकर जनकजी ने नदियों में पुल बँधवा दिये । बीच बीच में उत्तम निवासस्थान बनवाये, जिनमें देवलोक के समान सम्पदा छाई हुई है ॥३॥ असन सयन बर बसन सुहायैः । पावहिँ सब निज निज मन भाये ॥ नित नूतन सुख लखि अनुकूले । सकल घरातिन्ह मन्दिर भूले ॥४॥ उत्तम भोजन, सेज़ और सुहावने वस्त्र सब अपनी अपनी रुचि के अनुसार पाते हैं। इच्छानुकूल नित्य नया सुख देख कर समस्त बरातियों को घर भुला गया | जरातवालों को अपने घर से बढ़ कर सुपाल मिलने की व्यसना अगढ़ व्यंग है।