पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचरित मानस । दो-आवत जानि बरात बर, सुनि गहगहे निसान । सजि गज रथ पदचर तुरग, लेन चले अगवान ॥३०॥ अच्छे धूम के साथ बजते हुए नगारों के शब्द सुन कर घरात का आगमन जान जनक नगर निवासी हाथी, रथ, पैदल और घोड़े सजा कर अगवानी लेने को चले ॥३४॥ चौ०-कनक कलस कल कोपर थारा। भाजन ललितं अनेक प्रकारा॥ भरे सुधा सम सब पकवाने । भाँति भाँति नहिं जाहिँ बखाने ॥१॥ सोने के सुन्दर बड़े और परात, थाल आदि अनेक प्रकार के सुन्दर बरतनों में अमृत के समान स्वादिष्ठ जल और सब तरह तरह के पकान भरे हैं, जो बखाने नहीं जा सकते ॥१॥ कल अनेक बर बस्तु सुहाई । हरषि भेंट हित भूप पठाई ॥ भूषन बसन महामनि नाना । खग मृग हय गय बहु विधि जाना ॥२॥ बहुत से उत्तम फल और सुहावनी चीजें राजाजनक ने हर्पित होकर भेट के लिये भेजवाई। . गहना, कपड़ा नाना प्रकार के बड़े रत्न, पक्षी, मृग, घोड़ा, हाथी और बहुत तरह के रथ ॥ २॥ मङ्गल सकुन सुगन्ध सुहाये । बहुत भाँति महिपाल पठाये ॥ दधि चिउरा उपहार अपारा । भरि भरि काँवरि चले कहारा ॥३॥ बहुत प्रकार के सुहावने मांगलिक शकुन और सुगन्धित पदार्थ राजा ने भेजवाये । दही, चिउड़ा आदि असंख्यो भेंट की वस्तुएँ काँवरियों में भर कर कहार ले चले ॥३॥ अगवानन्ह जब दीखि बराता । उर आनन्द. पुलक भर गाता ॥ देखि बनाव सहित अगवाना । मुदित बराती हने निसाना ॥४॥ जब अगवानियों ने बरात को देखा, तब उनके दृश्य में अानन्द भर आया और शरीर पुलकित हो गया। बरातियों ने बनाव के सहित अगवानीवालो को देख प्रसन्न हो कर नगारे बजाये ॥४॥ दो-हरषि परसपर मिलन हित, कछुक चले बगमेल । जनु आनन्द समुद्र दुइ, मिलत बिहाइ सुबेल ॥३०॥ प्रसन्न हो कर आपस में मिलने के लिए कुछ चले और नगिचा गये। ऐसा मालूम होता है मानों दो आनन्द के सागर अपनी अपनी मर्यादा को छोड़ कर मिलते हैं॥३०॥ दोनों दल और आनन्द के दो समुद्र, मिलनेवालों के झुण्ड और तरङ्ग, संकोच की मर्यादा और सुवेत्त-पर्वत आपस में उपमेय उपमान हैं। प्रथम तो समुद्र मिलते नहीं, उसार आनन्द के दो सागरों का मिलना वर्णन कवि की कल्पना मात्र है; क्योंकि ऐसा कभी संसार हुआ नहीं। यह 'अंनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है । बगमेल शब्द का अर्थ किसी ने