पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३६७

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३० रामचरित मानस । सिथ महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदय हेतु पहिचानी। पितु आगमन सुनत दोउ भाई । हृदय न अति आनन्द अमाई सीताजी की महिमा को रघुनाथजी जान कर उसके कारण को परख मन में प्रसन्न हुए। दोनों भाई पिता का आगमन सुनते ही इतने अधिक प्रसन्न हुए कि वह आनन्द हड्य में समाता नहीं है ॥२॥ हेतु पहचानने में व्यसनामूलक गूढ़ ध्वनि है कि जैसे धनुप तोड़ कर जनकपुर निवा- सियों को मैं ने सुखी किया, उसी तरह सिधियों द्वारा सीता अवधपुरस्वासियों को आनन्द दे रही हैं। पिता से मिलने के लिए चित्र में प्रसता का होना सञ्चारीभाष' है। सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाही। पितु-दरसन लालच मन मोहीं। बिस्वामित्र भिनय बड़ि देखी। उपजा उर सन्तोष बिसेखी ॥३॥ लज्जा यश गुरुजी से कम नहीं सकते, परन्तु पिता के दर्शन की मन में बड़ी लालमा है। विश्वामित्रजी ने दोनों बन्धुओं की अतिशय नम्रता देखी, इससे उनके मन में विशेष सन्तोष उत्पन्न हुधा ॥३॥ रामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी के सकुच से विश्वामित्रजी उनके मन का अभिप्राय जान गये और उन्हें दृदय से लगा कर अनवासे को चले पिहित अलंकार है। हरषि बन्धु दोउ हृदय लगाये। पुलक-अङ्ग अम्बक जल छाये। चले जहाँ दसरथ जनवासे । मनहुँ सरोवर तके पियासे १४५ प्रसन्न हो कर दोनों भाइयों के सदय से लगा लिया, उनका शरीर पुलकित हो गया और माँखों में जल भर आया । जनवासे में जहाँ दशरथजी है वहाँ चले, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों तालाय प्यासे को तक कर जाता है। Man प्यासा मनुष्य सरोवर की ताक में जाता है किन्तु तालाब कभी प्यासे के पास नहीं आता, यह कवि की कल्पना मात्र 'अनुकविपया वस्तूप्रेक्षा अलंकार' है। यदि पेसा अर्थ किया आय कि-"माने प्यासा तालाब की खोज में जाता है।" तय उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा होगा। दो०-भूप बिलोके जवहिँ मुनि, आवत सुतन्ह समेत । उठे हरषि सुख-सिन्धु महँ, चले थाह सी लेत ॥३०॥ राजा ने ज्यों ही पुत्रों के सहित विश्वामित्र मुनि को श्रावे देवा, त्यो ही प्रसन्न हो कर उठे और मानों सुख रूपी समुद्र मै थाह लेते हुए समान चले ॥३०॥ चौ०-मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा । बार बार पद-रज धरि सीसा॥ कैासिक राउ लिये उर लाई । कहि असीस पूछी कुसलाई ॥१॥ राजा दशरथजी ने विश्वामित्र मुनि को दण्डवत किया और चार बार उनके चरणों की धूत सिर पर रखी । विश्वामित्रजी ने राजा को हदय से लगा लिया और आशीर्वाद दे कर कुशल-समाचार पूछा ॥१॥