पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३६९

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5 रामचरित मानस । ३१० सतानन्द अरु बिन सचिव गन । मागध सूत बिदुष धन्दीजन ॥ सहित बरात राउ सनमाना । आयसु माँगि फिरे अगवानी ॥३॥ अगवानी में आये हुए शतानन्द, ग्रामणवृन्द, मागध, पौराणिक, विद्वान और बन्दीजनों ने बरात के सहित राजा दशरथजी का श्रादर-सत्कार कर आशा मांग कर लौटे ॥३॥ प्रथम बरात लगन त आई । ता ते पुर प्रमोद अधिकाई ॥ ब्रह्मानन्द लोग सब लहहीं । बढ़हु दिवस निसि विधि सन कहहीं ॥४॥ बारात विवाह के मुह से पहले आई, इससे जनकपुर में अधिक आनन्द बढ़ रहा है। सब लोग ब्रह्मानन्द पा रहे हैं और विधाता से मनाते हैं कि दिन रात चढ़ी हो॥४॥ नगर-निवासी रात दिन बढ़ने को इस लिए मनाते हैं कि जिसमें लग्न का दिन शीव न श्रा जाय, नहीं तो हमारा यह आनन्द जाता रहेगा । यहाँ वियोग की अक्षमता में 'उत्सुकता सवारीभाव है। दो०- राम सीय सेोमा अवधि, सुकृत अवधि दोउ राज । जहँ तहँ पुरजन कहहिँ अस, मिलि नर-नारि-समाज ॥३०॥ रामचन्द्र-सीताजी शोभा के हह है और दोनों राजा (दशरथ, जनक) पुरय की सीमा हैं। जहाँ तहाँ नगर निवासी स्त्री-पुरुषों की मंडलियाँ मिल कर आपस में इस तरह कहती हैं ॥३०॥ चौर-जनक-सुकृत-मूरति वैदेही । दसरथ सुकृत राम धरे देही । इन्ह सम काहु न सिव अवराधे । काहु न इन्ह समान फल लाधे ॥१॥ जनकजी के पुण्य की मूर्ति जानकीजी हैं और दशरथजी के देहधारी सुकृत रामचन्द्रजी हैं। इन दोनों राजाओं के समान किसी ने शिवजी की उपासना नहीं की और न किसी ने इनके बराबर फल हो पाया है ॥२॥ इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं । है नहिँ कतहूँ होनेउ नाहीं । 'हम सब सकल सुकृत्त के रासी । मये जग जनमि जनकपुर-बासी ॥२॥ इनके समान संसार में कोई नहीं हुआ, न है और न कहीं होने ही वाला है। हम सब सम्पूर्ण सुकृत्तों की राशि हैं जो जगत् में जन्म ले कर जनकपुर के निवासी हुए हैं ॥ २॥ कोई प्रागे भी इनके समान होनेवाला नहीं है, इस भावी यात को प्रत्यक्ष को भाँति कहने में 'भाविक अलंकार, है। जिन्ह जानकी-राम-छबि देखी । को सुकृती हम सरिस बिसेखी ॥ पुनि देखब रघुबीर-विवाहू । लेब भली बिधि लोचन लाहू ॥३॥ जिन्होंने जानकी और रामचन्द्रजी की छवि देणी, हमारे बराबर अधिक पुरषामा .