पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३७

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बालपने से मीरा कीन्ही, गिरधरलाल मिताई । सो तो यब स्टत नहिं क्यों हूँ, लगा लगन परिमाई ॥३॥ मेरे मातु पिता समान है।, हरिभकन्ह सुखदाई । हमको कहा उचित परियो है, तो लिखिये समुशाई rel इसके उसर में गोसाँईजी ने यह पद लिन भेजा- जाके मिय न रामन्चैदेही। तजिये ताहि कोटि कैरी सम, जापि परम सनेही ॥१॥ तजेट पिता प्रहलाद विभीषन बन्नु भरत महतारी । बलि गुरु तजेठ माह बनवनितन्त, भे जग मान्तकारी |RAL नातो नेह राम के मनियत, सुहद तुसेप्य महालौं । अञ्जन कहा ये खि जेहि फूटइ, बहुतक कह कहाली ॥३॥ तुलसी सोइ मापनो सकल विधि, पूज्य प्रान ते पारे । जासों हाइ सनेह राम सों, एतो मतो हमारी || कहा जाता है इस उत्तर को पाकर मीराबाई महल त्याग कर तीर्थाटन के लिये निकल गयी और अपना शेष जीवन एकान्त पास पर भजन में विताया। मीरा का स्वर्गवास सम्बत् १६०३ में हुआ था और यह बात उससे कुल पहले की होगी। कम से कम यदि दश वर्ष पूर्व की बात मानी जावे तो परिडत रामगुलामजी द्विवेदी के मतानुसार गोसाँईजी की अवस्था उस समय ४ वर्ष की रही होगी। इस कारण इस पत्रा-लाप के सम्बन्ध में बड़ा सन्देह होता है। हाँ-यदि इन्द्रदेवनारायण का कथन टीक माना जाय तो उस समय तक गोसाईजी की अवस्था ४२ वर्ष की मानी जा सकती है। जो हो, यह भारयायिका जगत्मसिद्ध है, इसीसे हमने भी इसका उल्लेख मान कर दिया है। वृन्दावन से प्रस्थान करके गोस्वामीजी प्रकार के प्रसिद्ध वज़ीर नवाप सानखाना और श्रामेर के महाराज मानसिंह से मिलते हुए यमुनातट का मार्ग पकड़े चित्रकूट की घोर पा रहे थे। जिता जालवन में यमुनानदी के किनारे पर एक स्थान केजीसा' है जहां चम्बल, यहून, सेंध और कुवारि नाम को नदियाँ यमुना में मिली हैं। इस कारण यह स्थान पंचनद भी कहलाता है। इस तपोभूमि में चिरकाल से साधु महात्माओं की मंडली रहती आई है। यहाँ कितने ही प्रसिद्ध महात्मानों की समाधियाँ और देवमन्दिर हैं। जब गोस्वामीजी इस स्थान के समीप पहुँचे, तर सूर्य भगवान नपनी फिरण समेट अस्ताचल में अडश्य हो चुके थे। वहीं गोसांईजी ने ठहर जाने का विचार किया, इतने में उस स्थान के प्रधान महात्मा वंजूवन से भेंट हुई। वे बड़े आग्रह और सम्मान पूर्वक गोलाजी को श्राश्रम में लिया गये और श्रासन देकर बहु प्रकार आदर सत्कार किया। दूसरे दिन मी विश्राम के लिये अनुनय विनय करके उहराया। केजीला के पास में जगम्मनपुर नाम की एक छोटी सी रियासत है। उस समय वहाँ उदो तशाह राजा थे उन्हों ने गोस्वामीजी की महिमा सुन रक्खी थी। उनका केजीसा में पधारमा सुन कर राजा दातशाह वहाँ गये और बड़ी प्रार्थना करके उन्हें अपनी राजधानी में लिया जाये। राजा ने भक्तिपूर्वक गोस्वामीजी की ऐसी सेवा की जिससे वे उदातशाह पर बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा को तीन वस्तुएँ प्रदान की। एक दक्षिणावर्ती शङ्ख, एकमुखी रुद्राक्ष और सालिग्राम शिला (लक्ष्मी .