पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३७०

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प्रथम सोपान, बालकाण्डे । कौन होगा १ (कोई नहीं)। फिर रघुनाथजी का विवाह देखेंगे और भली भाँति नेत्रों का लाभ लेंगे ॥३॥ कहहिं परसपर कोकिल-बयनी। एहि बिबाह बड़ लाम सुनयनी ॥ बड़े भाग बिधि बात बनाई । नयन अतिथि होइहिँ दोउ आई ॥४॥ कोयल के समान वचनवाली स्त्रियाँ आपस में कहती हैं- हे सुनयनी इस विवाह में बड़ा लाभ है। यड़े भाग्य से विधाता ने बात बनाई है, दोनों भाई आँखों के मेहमान हुआ करेंगे । दो०-बारहि बार सनेह-बस, जनक बोलउब सीय। लेन आइहहि बन्धु दोउ, कोटि काम कमनीय ॥३१०॥ जनकजी स्नेह के वश चार चार सीताजी को बुलावेगे। करोड़ों कामदेवों से सुन्दर दोनों भाई (तब जनन्दिनी को) बुलाने के लिए यहाँ श्रावेंगे ॥३१०॥ ये युगल वन्धु मेरे नेत्रों के अतिथि होंगे। हेतुसूचक बात कह कर इसका युक्ति से समर्थन करना कि प्रीति के कारण सीताजी को राजा जनक बार बार बुलावेंगे और उन्हें लिवाने को दोनों भाई श्रावेगे। तब तब हम सब आँख भर इनकी शोभा देखेंगी 'काव्यलिंगा अलंकार' है। चौ-बिबिध भाँति होइहि पहुनाई । प्रिय न काहि अस सासुर माई। तब तब राम लखनहि निहारी । होइहि सब पुर-लोग सुखारी ॥१॥ अनेक प्रकार की मेहमानी होगी, हे माता ! ऐसी ससुराल किसको न प्यारी होगी । तब तब रामचन्द्र और लक्ष्मणजी को देख कर सब पुर के लोग सुखी होंगे ॥१॥ सखि जस राम लखन कर जोटा । तैसइ भूप सङ्ग दुइ ढोटा ॥ स्याम गौर सब अङ्ग सुहाये । ते सब कहहिं देखि जे आये ॥२॥ हे सखी । जैसे राम-लक्ष्मण की जोड़ी है, वैसे ही राजा के साथ दो बालक हैं। उनके स्यामल गौर वर्ण और सव अंग सुहावने हैं, जो देख आये हैं वे सब कहते हैं ॥२॥ कहा एक में आजु निहारे। जनु बिरजि निज हाथ सँवारे । भरत रामही की अनुहारी । सहसा लखि न सकहिं नर नारी ॥३॥ एक ने कहा-मैं ने आज ही देखा है, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों विधाता ने उन्हें अपने हाथ से संवारा है। भरत रामचन्द्रजी के समान है, कोई स्त्री-पुरुष उनको जल्दी पहचान नहीं सकते ॥३॥ लखन सुत्रुसूदन एक रूपा । नख-सिख नैं सब अङ्ग अनूपा ॥ मन भावहि मुख बरनि न जाहौं । उपमा कह त्रिभुवन कोउ नाहीं॥४॥ लक्ष्मण और शत्र हनजी एक रूप के हैं, नख से चोटी पर्यन्त उनके सब अंग अनुपम हैं। मन को सुहाते हैं, परवर्णन नहीं किए जा सकते, उपसा के लिए तीनों लोकों में कोई नहीं है nen लक्ष्मण और शत्रु हन के आकार में भेद न दिखाई पड़ना 'सामान्य अलंकार' है।