पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३७३

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। शामचरित मानस । दो०-भाग्य विभव अवधेस कर, देखि देव ब्रह्मादि। लगे सराहन सहस-मुख, जानि जनम निज वादि ॥३१३॥ ब्रह्मा आदि देवता अयोध्यानरेश के भाग्य और ऐश्वर्या को देख कर अपने जन्म को व्यर्थ जान कर सहस्रो मुख से उनकी सराहना करने लगे ॥३१३॥ चौ०-सुरन्ह सुमङ्गल अवसर जाना । बरपहिं सुमन बजाइ निसाना । सिव ब्रह्मादिक बिबुध-बरूथा। पढ़े विमानन्हि नाना जूथा ॥१॥ देवतागण सुन्दर मंगल का समय जान कर नगाड़ा बजा कर फूल बरसाते हैं। शिव, ब्राह्मा आदिक देवता वृन्द तथा नाना जाति के झुण्ड विमानों पर चढ़े ॥१॥ प्रेम पुलक-तन हृदय उछाहू । चले बिलोकन राम बिआहू॥ देखि जनकपुर सुर अनुरागे । निज निज लोक सबहि लघु लागे॥२॥ प्रम से शरीर पुलफित और हदय में उत्साह भरे हुए रामचन्द्रजी का विवाह देखने चतो जनकपुर देख कर देवता अनुरक हुए, सभी को अपने अपने लोक तुच्छ लगे ॥२॥ चितवहिँ चकित बिचित्र बिताना । रचना सकल अलौकिक नाना ॥ नगर-नारि-नर रूप-निधाना । सुघर सुधरम सुसील सुजाना ॥३॥ आश्चर्य से विलक्षण मण्डप को निहारते हैं, सारी रचनाएं लोकोत्तर नाना प्रकार की हैं। नगर के सी-पुरुष छधि के भण्डार सलोने, अच्छे धर्मात्मा, सुन्दर शीलवान और चतुर है ॥३॥ तिन्हहिं देखि सब सुर सुरनारी । भये नखत जनु बिधु उँजियारी ॥ विधिहि भयउ आचरज बिसेखी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी ॥४॥ उन्हें देख कर सब देवता और देवाङ्गनाएं ऐसे कम होने लगे मानो चन्द्रमा के उजेले में तारागण फीके पड़ गप हो । ब्रह्मा को इस बात का बड़ा आश्चर्य हुआ कि उन्होंने अपनी कुछ करनी कहा न देखी ॥४॥ दो-सिव समुझाये देव सब, जनि आचरज अलोहु । हृदय बिचारहु धीर धरि, सिय-रघुगर-बिआहु ॥३१४॥ शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि श्राश्चर्य में मत भूलोधीरज धर कर दय में विचारो, यह सीताजी और रघुनाथजी का विवाह है ॥३१॥ चौ-जिन्ह कर नाम लेत जग माहीं । सकल. अमङ्गल-मूल नसाहौँ । करतल होहि पदारथ-चारी । तेइ सिय-राम कहेउ कामोरी ॥१॥ जिनका नाम लेते ही संसार में सम्पूर्ण अमङ्गल के मूल नष्ट होते हैं। चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म , काम, मोक्ष) मुबी में हो जाते हैं, शिवजी ने कहा-वे ही सीता और राम- . चन्द्रजी हैं ॥१॥