पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३७६

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प्रथम सोपानं, बालकाण्ड । ३१७ हरि हित सहित राम जब जोहे । रमा समेत · रमापति माहे ॥ निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठे नयन जानि पछिताने ॥२॥ भले घोड़े के सहित जब लक्ष्मीकान्त ने रामचन्द्रजी को देखा, तब लक्ष्मी के समेत वे मोहित हो गये । रामचन्द्रजी की छवि निरीक्षण कर के ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए, परन्तु पाठ ही नेत्र समझ कर मन में पछताने लगे ॥२॥ 'हरि' शब्द अनेकार्थी होने पर भी प्रसावल से एक घोड़े की ही अभिधा है, अन्य अर्थों का ग्रहण नहीं है । रामचन्द्रजी घोड़े पर सवार परछन के लिए जनकजी के द्वार पर जा रहे हैं। उसी समय की शोभा का वर्णन है। सुरसेन उर अधिक उछाहू । बिधि तैं डेवढ़ सुलोचन लाहू । रामहि चितव सुरेस सुजाना । गौतम साप परम हित माना ॥३॥ स्वामिकार्तिक के हदय में अधिक उत्साह है, ब्रह्मा से ड्योढ़ा उन्हें सुन्दर नेत्र लाभ है। चतुर इन्द्र रामचन्द्रजी को चितवते और गौतम के शाप को अत्यन्त हितकारी मानते हैं ॥३॥ पूर्वार्द्ध में यह कहना कि देवताओं के सेनापति कार्तिकेय को बड़ा उत्साह है, इसका समर्थन हेतुसूचक बात कह कर करना कि उन्हें माला से ड्योढ़ा बढ़ कर ने लाभ है अर्थात् छे मुख में बारह आँखे 'काव्यलिग अलंकार' है। इन्द्र ने शाप रूपी दोष को राम-दर्शन के लाभ से उसे गुण मान लिया 'अनुशा अलंकार' है। इन्द्र के शाप की कथा इसी काण्ड में २०४ दोहे के नीचे छठी चौपाई की टिप्पणी देखिए । देव सकल सुरपतिहि सिहाहीँ । आजु पुरन्दर सम कोउ नाहीं॥ मुदित देव गन रामहि देखी । नृप समाज दुहुँ हरष बिसेखी ॥४॥ सम्पूर्ण देवता इन्द्र की बड़ाई करते हैं कि आज देवराज के समान कोई नहीं है । राम- चन्द्रजी को देख कर देवतावन्द प्रसन्न हो रहे हैं, दोनों राज समाज . में बड़ा हर्ष छा गूढ़ प्रशंसा की बात यह है कि गौतम के शाप से इन्द्र को जो हजोर भग हुए थे, वे रामचन्द्रजी के दर्शन से नेत्र हो गये हैं। हरिगीतिका- छन्द। अति हरष राज-समाज दुहुँ दिसि, दुन्दभी बाजहिं घनी। बरषहिँ सुमन सुर हरषि कहि जय, जयति जय रघुकुलमनी। एहि भाँति जानि बरात आवत, बाजने बहु बाजहीं। रानी सुआसिनि बोलि परिछन हेतु मङ्गल साजहीं ॥२२॥ दोनों मोर राजसमाज में बड़ा आनन्द छाया है और गहरे नंगाड़े बजते हैं। देवता लोग प्रसन्न मन हो कर फूल बरसाते हैं और रघुकुल-मणि की जय हो, बार बार जय जयकार मनाते