पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३७९

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रामचरिस-मानस। नभ अरु नगर कोलाहल होई । ओपन पर कछु सुनइ न कोई॥ एहि बिधि राम मंडपहि आये। अरघ देइ आसन बैठाये ॥४॥ आकाश और नगर में बड़ा हरला हो रहा है, कोई अपना पराया कुछ सुनता नहीं है। इस तरह रामचन्द्रजी मण्डप में आये, रानी ने अर्घ्य देकर उन्हें आसन पर बैठाया ॥ हरिगीतिका-छन्द। बैठारि आसन आरती करि, निरखि बर सुख पावहीं। मनि बसन भूषन भूरि वारहि; नारि मङ्गल गावहौं । ब्रह्मादि सुरबर विप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं । अवलोकि रघुकुल-कमल-रबि-छवि, सुफल जीवन लेखहीं ॥२॥ आसन पर बैठा कर आरती कर के वर को देख कर सुखी हो रही हैं । बहुत से रत, वस्त्र, आभूषण न्योछावर करती हैं और स्त्रियाँ मङ्गल गाती हैं। ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण का रूप धना कर श्रानन्दोत्सव देखते हैं। रघुकुल रूपी कमल-वन के सूर्य (रामचन्द्रजी ) को देख कर अपने जीवन को सफल मानते हैं ॥२४॥ दो०-नाऊ बारी भाट नट, राम निछावरि पाइ । मुदित असीसहि नाइ सिर, हरष न हृदय समाइ ॥३१॥ नाऊ, बारी, भाट और नचनियाँ रामचन्द्रजी की न्योछावर पा कर प्रसन्नता से सिर झुका कर असीसते हैं उनके हदयों में हुईं श्रमाता नहीं है ॥३१॥ असंख्यों नेगियों के हदय रूपी आधार से आनन्द रूपी आधेय को अधिक कहना 'प्रथम अधिक अलंकार' है। इस में व्यस्त से यह बात निकलती है कि यह आनन्द इससे भी अधिक स्थानों में फैला है। सूक्ष्म रीति से यहाँ पर्यन्त रानियों के परछने का प्रसंग समाप्त हुआ। अब दोनों समधियों का मिलन और देवादिकों द्वारा स्तुति वर्णन और समधी को मण्डप में ले पाना कहते हैं। चौo-मिले जनक दसरथ अति प्रीती। करि बैदिक लौकिक सब रीती॥ मिलत महा दोउरोजबिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥१॥ जनकजी सब वैदिक और लौकिक रीति कर के बड़े प्रेम से दशरथजी से मिले। दोनों महाराज मिलते हुए अत्यन्त शोभित हो रहे हैं, उनकी उपमा ढूढ़ हूँढ़ कर कवि लज्जित लही न कतहुँ हारि हिय मानी । इन्ह सम एइ उपमा उर आनी ॥ सामधदेखि देव अनुरागे । सुमन बरपि जस गोवन लागे ॥२॥ कहीं भी नहीं पाया, तब इदय में हार मोन कर इनके समान उपमान इन्हीं को मन में ले आया । समधियों को देख कर देवता अवरक हुए और फूल वरसा कर यश गाने लगे ॥२॥ हो गया ॥२॥