पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३८०

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । जग बिरञ्जि उपजावा जब तैं। देखे सुने ब्याह बहु तब तैं। सकल भाँति सब साज समाजू । सम समधी देखे हम आजू ॥३॥ घामाने जब से संसार में उत्पन्न किया तप से हमने बहुत विवाह देखे और सुने, परन्तु सम्पूर्ण प्रकार सब साज-समाज बराबर और समान लमधी अाज ही देखा है ॥३॥ देव-गिरा सुनि सुन्दर साँची । प्रीति अलौकिक दुहुँ दिसि माँची॥ देत पाँबड़े अरघ सुहाये । सादर जनक मंडपहि ल्याये ॥४॥ देवताओं की सुन्दर सत्य वाणी सुन फर दोनों ओर अपूर्व प्रीति उत्पन्न हो रही है। मुहावने पाँवड़े और अध्य देते हुए आदर के साथ जनकजी (समधी दोर) मण्डप में से पाये ॥४॥ हरिगीतिका-न्द । मंडप बिलोकि विचित्र रचना, रुचिरता मुनि मन हरे। निज-पानि जनक सुजान सब कह, आनि सिंहासन धरे। कुल-इष्ट सरिस बसिष्ठ पूजे, बिनय करि आसिष लही। कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि, रीति तैौ न परै कही ॥२॥ मण्डप की विलक्षण रचना और उसकी सुन्दरता को देख कर मुनियों के मन मोहित हो आते हैं । चतुर जनकजी ने सत्र को अपने हाथ से ला कर सिंहासन रक्खा । इष्टदेवता के समान वशिष्ठजी का पूजन किया और विनय कर के आशीर्वाद पाया । विश्वामित्रजी का पूजन 'करते समय तो अत्युत्तम प्रीति की रीति कहते नहीं बनती है ॥ २५ ॥ दो०-बामदेव आदिक रिपथ, पूजे मुदित महीस । दिये दिव्य आसन सबहि, सब सन लही असीस ॥३२०॥ वामदेव आदि ऋषियों की प्रसन्न मन से राजा जनक ने पूजा की और सभी को दिव्य प्रासन दिए तथा सब से आशीर्वाद पाये ॥ ३२० ॥ चौ०-बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा । जानि ईस सम भाव न दूजा ॥ कोन्हि जोरि कर बिनय बड़ाई । कहि निज-भाग्य विभव बहुताई॥१॥ फिर अयोध्यानरेश को ईश्वर के समान जान कर पूजन किया, दूसरा भाव नहीं। हाथ जोड़ कर बिनती और बड़ाई की, अपने भाग्य-विस्तार को सराहना की ॥१॥ जनकजी अपने भाग्य की बड़ाई करते हैं, परन्तु इससे दशरथजी की प्रशंसा व्यजित होना 'लक्षणामूखक अविवक्षितबाच्य ध्वनि' है।