पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३८३

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. रामचरित मानस कोकिल लज्जित हो जाते हैं। पायजेप, घुघुरू और शोमन करूण ताल की अच्छी गति से बजते हैं ॥२॥ दो-सोहति बनिता वृन्द महँ, सहज सहावनि सीय। छबि ललना गन मध्य जनु, सुखमा तिय कमनीय ॥३२२॥ सहज ही शोभायमान सीताजी स्त्रियों के झुण्ड में शोभित हो रही हैं। वे ऐसी मालूम होती हैं मानो छवि रूपी स्त्री- मण्डल के बीच में महा छवि रूपी ली शोभित हो ॥३२२॥ चौ-सिय सुन्दरता बरनि न जाई । लघु मति बहुत मनोहरताई ॥ आवत दीखि बरातिन्ह सीता । रूप-रासि सब भाँति पुनीता ॥१॥ सीताजी की सुन्दरता बखानी नहीं जाती, बुद्धि थोड़ी है और मनोहरता बहुत है। प की खान और सब प्रकार से सीताजी को ओते हुए बरातियों ने देखा ॥२॥ सबहि मनहिँ मन किये प्रनामा । देखि राम भये पूरनकामा ॥ हरषे दसरथ सुतन्ह समेता । कहि न जाइ उर आनँद जेता ॥२॥ सय ने मन ही मन प्रणाम किया, उन्हें (सीताजी को देख कर रामचन्द्रजी सफल मनोरथ हुए । पुत्रों सहित दशरथजी हर्षित हुप, जितना अानन्द उनके हृदय में हुआ वह कहा नहीं जा सकता ॥२॥ सुर प्रनाम करि बरिसहि फूला । मुनि-असीस-धुनि मङ्गल-मूला ॥ गान-निसान-कोलाहल भारी । प्रेम-प्रमोद-मगन नर-नारी ॥३॥ देषता प्रणाम कर फूल बरसाते हैं, मङ्गल के मूल मुनियों के आशीर्वाद की ध्वनि हो रही है । गान और नगाड़े के शब्द का बड़ा शोर हो रहा है, स्त्री-पुरुष सय प्रेम से आनन्द में मग्न हैं ॥३॥ एहि बिधि सीय मंडपहि आई। प्रमुदित सान्ति पढ़हिँ मुनिराई । तेहि अवसर कर विधि ब्यवहारू । दुहुँ कुलगुरु सब कीन्ह अचारू ॥४॥ इस तरह सीताजी मण्डप में आईमुनीश्वर लोग प्रसन हो कर शान्ति पढ़ते हैं। उस समय के व्यवहार की विधि और कुलाचार सब दोनों कुल-गुरुत्रों ने किये ॥४॥ हरिगीतिका-छन्द । आचार करि गुरु-गौरि-गनपति, मुदित विप्र पुजावहाँ। सुनचागटि पूजा लेहि देहिँ, असोस अति सुख पावही.॥ .