पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३८७

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रामचरितमानस राम सीय सुन्दर प्रेतिछाही। जगमगाति मनि-खम्भन माही मनहुँ मदन-रति धरि बहु रूपा। देखत राम-विवाह अनूपा ॥२॥ रामचन्द्र और सीताजी की सुन्दर परछाही मणियों के खम्भों में झलकती हैं। वे ऐसी मालूम होती है मोनों रति और कामदेव यहुत से रूप धारण कर अनुपम राम विवाह देखते हो॥२॥ रति और कामदेव का अनेक रूप धारण असिद्ध आधार है। राम-जानकी की परवाही को कामदेव-रति की कल्पना कर के अहेतु में हेतु ठहराना 'असिद्धविपया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार' है। दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी । भये मगन सब देखनिहारे । जनक समान अपान बिसारे ॥३॥ दर्शन की लालसा बहुत बड़ी है, और लज्जा भी कम नहीं है, इससे बार बार प्रकट होते और छिप जाते हैं। सब देखनेवाले जनक के समान अपनपौ भूल कर मग्न हो गये ॥ ३॥ उत्सुकता और लज्जा भाव की सन्धि है । दर्शन की उत्सुकता से प्रकट होते हैं और अपनी अप शोभा समझ लज्जित हो छिप जाते हैं। प्रमुदित मुनिन्ह भाँवरी फेरी । नेग सहित सब रीति निबेरी ॥ राम सीय सिर सैंदुर देहीं । सोभा कहि न जाति विधि केही ngs प्रसन्नता से मुनियों ने भाँवर फिराई और नेग सहित सव रीति निबटाई । रामचन्द्रजी सीताजी के सिर में सिन्दुर देते हैं, वह शोभा किसी तरह नहीं कही जाती है ॥ ४ ॥ अरुन-पराग जलज भरि नीके ! ससिहि भूष अहि लोन अमी के ॥ बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन । बर दुलहिन वैठे एक आसन IN (माने) लाल धूलि को कमल में अच्छी तरह भर कर अमन के लोभ ले साँप चन्द्रमा को अलंकृत करता हो । फिर वशिष्ठजी ने आज्ञा दी, वर और दुलहिन एक आसन पर वैठे॥५॥ केवल उपमान कह कर उपमेय का अर्थ प्रकट होता है । अरुण पराग सिन्दूर, जलज हाय, शशि-सीताजी का मुखमण्डल, सर्पभुजदण्ड, अमृतछषि ये सब प्रथम कहे उपमान के उपमेय 'रूपकातिशयोक्ति अलंकार' है और गौणी साध्यवसान लक्षणा है । सिन्दूर अरुण पराग है, हाथ की अँगुलियाँ कमलदल हैं, सिन्दूर लेने से उनका बटुरना सकुचाना है. जानकीजी का मुख-मण्डल चन्द्रमा है, रामचन्द्रजो के भुजदण्ड सप हैं, मुख छवि अमृत है और दर्शन की इच्छा अमृत पान का लोभ है । इसके अतिरिक्त विना वाचक पद के गम्य 'प्रसिद्ध विषया फलोत्प्रेक्षा अलंकार' है।