पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३९३

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रामरित-मानस । और आभूषण न्योछावर कर के भारती करती हैं एवम् मङ्गल गाती हैं। देवता फूल बरसाते है और सूत, मागध, चन्दीजन सुयश सुनाते हैं ॥३२॥ कोहबरहि आने कुँअर कुँअरि, सुआसिनिन्ह सुख पाइ के। अति प्रीति लौकिक रीति लागी,करन मङ्गल गाइ. लहकौरि गौरि सिखाव रामहि, सीय सन सारद कहैं । रनिवास-हास बिलास रस-बस, जनम को फल सब लहैं ॥४३॥ सुहागिनी स्त्रियाँ प्रानन्द को प्राप्त हो कर राजकुमार और राजकुमारियों को कोहबर में ले आई। बड़ी प्रीति से मङ्गल गान कर के लौकिक रीति करने लगीं। रामचन्द्रजी को पार्वती तथा सीताजी को सरस्वतीजी बतासे का ग्रास मुख में देने को सिखा कर कहती हैं। रनिवाल हँसी-दिल्लगी के मानन्द वश हो कर सब जन्म का फल ले रही हैं ॥४३॥ कोहबर-वह घर जहाँ विवाह के समय कुलदेवता स्थापित किये जाते हैं । और विवाह के पीछे वर-दुलहिन को वहाँ ले जा कर कई प्रकार की रातियाँ की जाती हैं। लहकोरिधी बत्तासे का ग्रास जो कोहबर में परस्पर दूलह दुलहिन के मुख में और दुलहिन दुलह के मुख में देती है। वर्तमान में अधिकांश दही शक्कर वा दही गुड़ की प्रथा प्रचलित है। निज-पानि-मनि महँ देखि प्रतिमूरति सरूप-निधान की। चालति न भुजबल्ली बिलोकनि, बिरह भय-बस जानकी ॥ कौतुक बिनोद प्रमोद प्रेम न, जाइ कहि जानहि अली । बर कुँअरि सुन्दरि सकल सखी, लिवाइ जनवासहिँ चली ॥४॥ अपने हाथ की मणियों में सरूपनिधान (रामचन्द्रजी) की परछाही को देख कर जानकोजी विरह के भय से वाहुरूपी लता दृष्टि-पथ से हिलाती डुलाती नहीं हैं। वह कुतू- हल हँसो दिल्लगी महान् हर्ष और प्रेम कहा नहीं जाता है, उसे सस्त्रियाँ ही जानती हैं। सुन्दर वर-वधुओं को सब सखियाँ लिवा कर जनवासे को चली neen यहाँ जानकीजी को वियोग का भय देना भयानक रसाभास है, क्योंकि यह उर अयथार्थ है। जब रामचन्द्रजी पास ही में विद्यमान हैं, तब वियोग का भय करना ठीक नहीं है। तेहि समय सुनिय असीस जहँ तह, नगर नभ आनँद महा । चिरजिअहु जारी चारु चारिउ, मुदित मन सब ही कहा ॥ जोगीन्द्र-सिद्ध-मुनीस-देव बिलोकि प्रभु दुन्दुभि हनी । निज निज,-लोक जय जय जय भनी ॥४५॥ उस समय नगर और आकाश में जहाँ सुनिये वहाँ आशीर्वाद की ध्वनि का बड़ा आनन्द छा रहा है। सभी प्रसन्न मन से कहते हैं कि चारों सुन्दर जोड़ियाँ चिरंजीवी हो । योगीश्वर, चले हरषि बरषि प्रसून