पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३९४

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1 बैठारे ॥ प्रथम सोपान, बालकाण्ड । ३३५ सिद्ध, मुनिराज और देवता प्रभु रामचन्द्रजी को देख कर दुन्दुभी बजा कर हषित हो और फूलों की वर्षा कर के बारम्बार जय जयकार करते हुए अपने अपने लोक को चले ॥४॥ दो०-सहित बधूटिन्ह कुँअर सब, तब आये पितु पास । सोला मङ्गल मोद भरि, उमगेउ जनु जनवास ॥३२॥ तब सब कुपर यहुओं समेत पिता के पास श्राये। ऐसा मालूम होता है मानों शोभा, मङ्गल और श्रानन्द से सर कर जनवास उमड़ पड़ा हो ॥३२७॥ चौ०-पुनि जेवनार भई बहु माँती। पठये जनक बोलाइ बराती । परत पाँबड़े बसन अनूपा । सुतन्ह समेत गवन किय भूपा ॥१॥ फिर बहुत तरह का भोजन तैयार हुआ, जनकजी ने बरातियों को बुलवा भेजा। पुत्रों सहित राजा दशरथजी ने गमन किया, अपूर्व वस्त्रों के पाँवड़े पड़ते जाते हैं ॥१॥ सादर सब के पाय पखारे। जथाजोग पीढ़न धोये जनक अवधपति चरना । सील सनेह जाइ नहिँ बरना ॥२॥ श्रादर के साथ सब के पाँव धोये और यथायोग्य पीढ़ों पर बैठाया । जनकजी ने अयोध्या- नरेश का चरण धोयो, वह शील और स्नेह कहा नहीं जाता है ॥२॥ बहुरि राम-पद-पङ्कज धेाये । जे हर-हृदय-कमल मह गोये ॥ तीनिउ भाइ राम सम जानी। धोये जनक चरन निज-पानी ॥३॥ फिर रामचन्द्रजी के चरण-कमलों को धोया जो शिवजी के हृदय रूपी फमल में छिपे रहते हैं। तीनों भाइयों को रामचन्द्रजी के समान जान कर अपने हाथ से जनकजी ने चरण धेाया ॥३॥ आसन उचित सबहि रूप दीन्हे । बोलि सूपकारक सब लीन्हे ॥ . परन पनवारे। कनक-कील मनि पोन सँवारे ॥४॥ राजा जनक ने सभी को उचित आसन दिया और सब रसोईदारों को बुला लिया। श्रादर के साथ पत्तल पड़ने लगे, वे मणियों के पत्तों से सुवर्ण के कील दे कर बनाये गये हैं ॥ ४॥ दो०-सूपादन सुरभी-सरपि, सन्दर स्वाद पुनीत । छन महँ सब के परसि गे, चतुर सुआर बिनीत ॥३२८॥ सुन्दर स्वादिष्ठ दाल, स्वच्छ भात और गाय का घी, चतुर परोसनेवाले नम्रतापूर्वक सब के सामने क्षण भर में परस गये ॥ ३२ ॥ चौ०- पञ्जकवलि करि जेवन लागे । गारि गान सुनि अति अनुरागे । 'भाँति अनेक परे पकवाने । सुधा सरिस नहि जाहिँ बखाने ॥१॥ पशकवलि करके भोजन करने लगे, गाली का गाना सुन कर बड़े प्रेम में डूब गये। अनेक तरह के पक्वान्न पड़े जो अमृत के समान मीठे हैं और बखाने नहीं जाते हैं ॥१॥ सादर · लगे