पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३९५

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रामचरितमानस गाली दोष है, पर विवाह सम्बन्ध से उसे गुण मान कर प्रसन्न होना 'अनुक्षा अलंकार है । पञ्चवलि-भोजन के पहले प्राण, श्रपान, समान, उदान और ध्यान इन पाचों प्राणों को पाँच ग्रास दे कर भोजन करता पञ्चकवलि कहलाता है। अथवा-लकमी, नारायण, गणेश, शिव-पावती और सूर्य पञ्चदेवों को पाँच पास अर्पण करना पञ्चकवलि है। परसन लगे सुआर सुजाना । बिज्जन बिबिध नाम को जाना । चारि भाँति भोजन खुति गाई । एक एक विधि बरनि न जाई ॥२॥ चतुर रसोइयाँ नाना प्रकार के व्यञ्जन-जिनका नाम कौन जानता है, परोसने लगे। चार तरह के भोजन वेदों ने कहा है, उनमें एक एक की पिधि वर्णन नहीं की जा सकती ॥२॥ भक्ष्य,भोज्य, लेह, चोष्य, येही भोजन के चार प्रकार हैं। भक्ष्य-वह जो चबाये जाये, जैसे-खुरमा, बुनिया, सेव, पापड़ आदि । भोज्य-यह जो खाये जाय, जैसे-रोटी, भात, दोल, पूड़ी, हलुवा आदि । लेहा- -वह जो चाटे जॉय, जैसे-रवड़ी, चटनी आदि । चोष्य- वह जो चूसे जाँय, जैसे-रायता, चोखा, बनोया हुआ खट्टा जल आदि । छरस रुचिर बिज्जन बहुजाती। एक एक • रस अगनित माँती ॥ जेवत देहि मधुर धुनि गारी । लइ लइ नाम पुरुष अरु नारी ॥३॥ छओं रस के बहुत तरह के सुन्दर भोजन एक एक रस अनगिनती प्रकार के बने हैं। भोजन करते समय पुरुष और स्त्रियों के नाम ले ले कर जनकपुर की स्त्रियाँ मधुर ध्वनि से गाली देती हैं ॥३॥ खट्टा, खारा, कडुआ, कषेला, तीता और मीठा यही छः रस है। समय सुहावन गारि बिराजा । हँसत राउ सुनि सहित समाजा॥ एहि बिधि सबही भोजन कीन्हा । आदर सहित आचमन दीन्हा ॥४॥ समय के अनुसार सुहावनी गलियाँ शोभित हो रही हैं, उसे सुन कर समाज के सहित राजा दशरथजी हँसते हैं। इस तरह सभी ने भोजन किया और आदरपूर्वक मुख धोने के लिए शुद्ध जल दिया ॥४॥ दो-देइ पान पूजे जनक, दसरथ सहित समाज । जनवासे गवने मुदित, सकल-भूप-सिरताज ॥३२६॥ जनकजी ने पान दे कर समाज के सहित दशरथजी का सत्कार किया । सम्पूर्ण राजा- ओं के शिरोमणि अयोध्यानरेश प्रसन्न हो कर जनवासे को चले ॥३२॥ चौ-नित नूतन मङ्गल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनिजाहीं । बड़े भार भूपत-मनि जागे । जाचक गुन गन गावन लागे ॥१॥ नित्य नया मङ्गल नगर में हो रहा है, रात और दिन पल के बरावर बीते जाते हैं। बड़े प्रातःकाल राजाओं के मणि (दशरथजी) जागे और याचक गुणवण गाने लगे ॥१॥ 1