पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३९७

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रामचरित मानस पाइ असीस महीस अनन्दा । लिये बालि पुनि जाचक-धन्दा । कनक बसन मनि हय गय स्यन्दन । दिये बूझिरुचि रविकुल-नन्दन ॥३॥ धामणा से आशीर्वाद पा कर राजा प्रसन्न हुए, फिर याचक-वृन्द को बुलवा लिया। सुवर्ण, वस्त्र, मणि, घोड़ा, हाथी और रथ सूर्यकुल के आनन्दित करनेवाले दशरथजी ने उनकी इच्छा के अनुसार दान दिया ॥३॥ चले पढ़त गावत गुन गाथा । जय जय जय दिनकर-कुल-नाथा ॥ एहि विधि राम-बिबाह-उछाहू । सकइ न बरनि सहस-मुख जाहू ॥१॥ पढ़ते और गुण की कथा गाम करते सूर्यकुल के स्वामी की जय हो, जय जयकार मनाते हुए चले। इस प्रकार रामचन्द्रजी के विवाह का उत्साह (जैसा असाधारण हुआ, वैसा) जिनको हज़ार मुख है वे भी नहीं कह सकते ॥४॥ दो-बार बोर कैासिक चरन, सीस नाइ कह राउ । यह सब सुखं मुनिराज तव, कृपा-कटोच्छ प्रभाउ ॥३३१॥ चार धार विश्वामित्रजी के चरणों में सिर नवाकर राजा कहते हैं-हे मुनिराज ! यह सब सुख आप ही की कृपा-कटाक्ष का फल है | ३३१ ॥ सुख की प्राप्ति में स्वभाग्य कारण है, उसका नाम न ले कर मुनि की कृपा को फल दाता सौभाग्य स्थापन करना 'सारोपा लक्षणा' है। चौ-जनक सनेह सील करतूती। दंप सब राति सराहत बीती ॥ दिन उठि बिदा अवधपति माँगा । राखहि जनक सहित अनुरागा ॥१॥ जनकजी के स्नेह, शीख और करनी की सराहना करते राजा को सारी रात बीत गई। दिन में उठ कर रोज अयोध्यानरेश बिदाई के लिए कहते हैं और जनकजी उन्हें प्रेम से रखा लेते हैं॥१॥ सभा की प्रति में 'नृप सब भाँति सराह विभूती' पाठ है। वहाँ अर्थ होगा-"राजा दशरथ सब प्रकार जनकजी के ऐश्वर्य की सराहना करते हैं"। नित नूतन आदर अधिकाई । दिनप्रति सहस-भाँति पहुनाई ॥ नित नव नगर अनन्द उछाहू। दसरथ गवन साहात न काहू ॥२॥ नित्य नया आदर बढ़ता जाता है, प्रतिदिन सहनों प्रकार की मेहमानी होती है। नगर में मित्य ही नवीन श्रानन्द और उत्साह मनाया जा रहा है, दशरथजी का जाना किसी को सुहाला नहीं है ॥२॥ जनकपुरवासियों के सहित विदेह के मन में रति स्थायीभाव है। राजा दशरथजी श्रालम्बन विभाव हैं । गमन की चर्चा उद्दीपन विभाष है। वह चपलता, आवेग, चिन्ता, मोह, दैन्य आदि सारी भावों की सहायता से विस्तृत हुआ है। . । 1