पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३९८

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड ।। बहुत दिवस बीते एहि भाँती । जनु सनेह रजु बँधे बराती ॥ कैासिक सतानन्द तब जाई । कहा बिदेह नृपहि समुझाई ॥३॥ इसी तरह बहुत दिन बीत गये, ऐसा मालूम होता है मानों स्नेह की रस्सी से बराती बँध गये हो । तब विश्वामित्र और शतानन्दजी ने जा कर राजा जनक को समझा कर कहा ॥३॥ रस्सी से जीव-जन्तु बन्धन में पड़ते ही हैं, परन्तु स्नेह रस्सी नहीं है जिससे बराती बँधे हैं। यह कवि की कल्पना मात्र 'अनुक्तविषया वस्तूप्रेक्षा अलंकार' है। अब दसरथ कहँ आयसु देहू । जापि छोड़ि न सकहु सनेहू ॥ भलेहि नाथ कहि सचिव बोलाये । कहि जयजीव सीस तिन्ह नाये ॥३॥ यद्यपि आप स्नेह नहीं छोड़ सकते, तो भी अब दशरथजी को आशा दीजिए। बहुत अच्छा स्वामिन् कह कर जनकजी ने मन्त्री को बुलवाया, वे श्राये और जयजीव कह कर मस्तक नधाया॥४॥ दो-अवधनाथ चाहत चलन, भीतर करहु जनाउ । भये प्रेम-बस सचिव सुनि, विप्र सभासद राउ ॥३३२॥ जनकजी ने कहा-अयोध्यानाथ चलना चाहते हैं, इसकी खबर भीतर (रनिवास में) कर दो । सुन कर सन्त्री, ब्राह्मण सभासदों के सहित राजा जनक स्नेह के वश हो गये ॥ ३३२॥ मन्त्री, राजा, सभासद और ब्राह्मणवृन्द अनेक उपमेयों का स्नेह के वश में हो जाना एक ही धर्म कथन 'प्रथम तुल्ययोगिता अलंकार है। चौ०-पुरघासी सुनि चलिहि बराता। पूछत विकल परसपर बाता ।। सत्य गवन सुनि सब बिलखाने । मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने ॥१॥ पुरवासियों ने सुना कि बरात जायगी, वे व्याकुल हो कर एक दूसरे से बात पूछते हैं । जाना सत्य है, यह सुन कर सब उदास हो गये, ऐसे मालूम होते हैं मानो सन्ध्या में कमल सकुचाये हो॥१॥ जहँ जहँ ओवत्त बसे बराती । तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती ॥ बिविध भाँति मेवा पकवाना । भोजन साजन जाइ बखाना ॥२॥ जहाँ जहाँ आती बेर बराती टिके थे, वहाँ वहाँ बहुत प्रकार का सिद्ध (रसद सामग्री श्राटा, चावल, दाल आदि) रवाना हुआ। अनेक तरह के मेवा पकवान भोजन का सामान जो बनाना नहीं जाता ॥२॥ ।