पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४०५

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, रामचरित मानस । बार बार बिरदावलि भाखी। फिरे सकल रामहि उर राखी । बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं । जनक प्रेम-बस फिरन न चहहीं ॥२॥ बारम्बार नामवरी (वंश की बड़ाई) यखान कर सव रामचन्द्रजी को हदय में रख कर फिरे। अयोध्यानरेश फिर फिर कहते हैं परन्तु प्रेम के अधीन हुए जनकजी लौटना नहाँ चाहते हैं ॥२॥ पुनि कह भूपति बचन सुहाये । फिरिय महीस दूरि बड़ि आये ॥ राउ बहारि उतरि भये ठाढ़े। प्रेम-प्रवाह बिलोधन बाढ़े ॥३॥ फिर राजा दशरथजी ने सुहावने वचन कहे-राजन् ! बहुत दूर आ गये, अब लौटिये। फिर अयोध्यानरेश रथ से उतर कर भूमि पर खड़े हो गये और आँखों में प्रेम का स्रोत बढ़ आया अर्थात् प्रेमाश्रु बहने लगा ॥३॥ तब विदेह बोले कर जारी। बचन सनेह-सुधा जनु बारी। करउँ कवन बिधि बिनय बनाई । महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई ॥१५, तघ जनकजी हाथ जोड़ कर बोले, उनके पचन ऐले मालूम हाते हैं मानों स्नेह रूपी अमृत में सराबोर है। हे महाराज ! मैं किस तरह घना कर विनती कर, आपने मुझे बड़ो घड़ाई दी है ॥४॥ दो०-कोसलपति समधी सजन, सनमाने सब माँति । मिलनि परसपर बिनय अति, प्रीति न हृदय समाति ॥३४॥ कोशलनाथ दशरथजी ने सज्जन समधी का सय तरह सम्मान किया । वह प्रापस का मिलना, नम्रता और अत्यन्त प्रीति हदय में समाती नहीं है ॥३४०n चौ०-मुनि-मंडलिहि जनक सिर नावा । आसिरबाद सहि सन पावा॥ सादर पुनि भैंटे जामाता । रूप-सील-गुन- -निधि सब भाता ॥१॥ जनकजी ने मुनि-मण्डली को सिर नवाया और सभी से अशीर्वाद पाया। फिर भादर के साथ रूप, शील और गुण के निधान सब भाई दामादों से मिले ॥१॥. जोरि ‘पङ्करुह-पानि सुहाये । बाले बचन प्रेम जनु जाये। राम करउँ केहि भाँति प्रसंसा । मुनि-महेस-मन-मानस हंसा ॥२॥ सुन्दर कमल के समान हाथों को जोड़ कर वचन बोले, वे ऐसे मालूम होते है मानो प्रेम उत्पन्न हुए (स्नेह के पुत्र) हो । हे रामचन्द्र ! मैं श्राप की प्रशंसा किस प्रकार से करूँ, माप मुनि और शिवजी के मन रूपी मानसरोवर के इंस हैं ॥२॥