पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४०६

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भ्रथम सोपान, बालकाण्डे । ३४७ करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोह माह ममता मद त्यागी। व्यापक ब्रह्म अलख अबिनासी । चिदानन्द निरगुन गुन-रासी ॥३॥ योगी लोग जिनके लिए क्रोध, मोह, ममत्व और घमण्ड त्याग कर योग करते हैं। जो सब में स्थित, परब्रम, अप्रकट, माश रहित, चैतन्य, आनन्द स्वरूप, निर्गुण एवम् गुणों की राशि है ॥३॥ मन समेत जेहि जान न बानी । तरकि न सकहिँ सकल अनुमानी ॥ महिमा निगम नेति कहि कहई । जो तिहुँकाल एकरस अहई ॥४॥ मन के सहित जिनको वाणी नहीं जानती और समस्त अनुमान करनेवाले जिनकी तर्फना नहीं कर सकते, जिनकी महिमा को घेद इति नहीं कह कर प्रतिपादन करते हैं, जो तीनों काल में एक समान रहते हैं | दो०-नयनविषय मे कहँ अयउ, सेा समस्त-सुख-मूल । सबइ सुलभ जग जीव कह, भये ईस अनुकूल ॥३१॥ वे ही सम्पूर्ण सुखों के पुल (परमात्मा) मेरे नेत्रों के विषय हुए अर्थात् मैं ने दर्शन पायो ! ईश्वर के अनूकूल होने पर जीवों को संसार में सब कुछ सहज में मिल जाता है ॥३४१॥ चौ०-सबाहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई । हाहिँ सहस-दस सारद सेखा। करहि कलप कोटिक भरि लेखा ॥१॥ सभी प्रकार आपने मुझे बड़ाई दी और अपना सेवक जान कर अपना लिया । यदि दस हज़ार सरस्वती और शेष हो जाँय और करोड़ों कल्प पर्यन्त गणना करें ॥१॥ मार भाग्य राउर गुन-गाथा । कहि न सिराहिँ सुनहु रघुनाथा ॥ मैं कछु कहहुँ एक बल मारे । तुम रीझहु सनेह सुठि धोरे ॥२॥ मेरा सौभाग्य और आपके गुणों की कथा, हे रघुनाथजी ! वे कह कर समाप्त नहीं कर सकते । मैं कुछ कहता हूँ, मुझे एक ही भरोसा है कि आप बहुत थोड़े स्नेह से प्रसन्न होते हैं ॥२॥ बार बार माँगउँ कर जोरे । मन परिहरई चरन जनि भारे ॥ सुनि घर बचन प्रेम जनु पोष। पूरनझाम राम परितोषे ॥३॥ मैं चार बार हाथ जोड़ कर यह माँगता हूँ कि भूल कर मेरा मन आपके चरणों को न छोड़े। जनकजी के भेष्ट बचन सुन कर वे ऐसे मालूम हुए माना प्रेम से पुष्ट किये हुए हो, पूर्णकाम रामचन्द्रजो सन्तुष्ट हुए ॥३॥ ।