पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४०७

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है 1 रामचरित मानसे। करि घर बिनय ससुर सनमाने । पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने ॥ बिनती बहुत भरत सन कीन्ही । मिलि सप्रेम पुनि आसिष दीन्ही॥१॥ रामचन्द्रजी ने सुन्दर विनती करके पिता, विश्वामित्र और वशिष्ठजी के समान जान कर श्वसुर का सम्मान किया । जनकजी ने भरतजी से बहुत प्रार्थना को और प्रीति-पूर्वक मिलकर तदन्तर उन्हें आशीर्वाद दिया un सभा की प्रति में 'बिनती बहुरि' पाठ है। दो०-मिले लखन रिपुसूदनहि, दीन्ह असीस महीस । भये परसपर प्रेम-बस, फिरि फिरि नावहिँ सोस ॥ ३४२ ॥ लक्ष्मण और शत्रुहनजी से मिलकर राजाने उन्हे आशीर्वाद दिया । एक दूसरे के प्रेमा. धीन हो कर बार बार मस्तक नवाते हैं ॥३२॥ चौ०-बार बार करि विनय बड़ाई। रघुपति चले सङ्ग सब भाई ॥ जनक गहे कैौसिक पद जोई । चरन-रेनु सिर नयनन्हि लाई ॥१॥ बार बार (जनकजी से) विनती और घड़ाई करके रघुनाथजी सब भाइयों के सङ्ग चले। जनकजी ने जाकर विश्वामित्रजी के पाँव पकड़े और चरणों की धूल को सिर और नेत्रों में लगाया॥१॥ चरण रज को सिर और आँखों में लगाना अतिशय सम्मान एवम् प्रीति-सूचक अनुभाव है। सुनु मुनीस बर-दरसन तारे । अगम न कछु प्रतीति मन मारे ॥ जो सुख लुजस लोकपति चहहीं । करत मनोरथ सकुचात अहहीं ॥२॥ हे मुनीश्वर ! सुनिए, श्राप के श्रेष्ठ दर्शन से कुछ दुर्लग नहीं, मेरे मन में ऐसा विश्वास है। जो सुख एवम् सुयश लोकपाल चाहते हैं शौर मनोरथ करते हुए सकुचाते हैं ॥ २॥ सो सुख सुजस सुलभ माहि स्वामी । सर सिधि तव दरसन अनुगामी ॥ बिनय पुनि पुनि सिरनाई। फिरे सहीस आसिषा पाई ॥३॥ हे स्वामिन् ! मुझे वह सुख और सुयश सुलभ हुश्री, सारी सिद्धियाँ श्राप के दर्शन के . पीछे चलनेवाली हैं। विनती कर के वार चार मस्तक नवाया और आशीर्वाद पा कर राजा जनक लौटे ॥३॥ चली बरात निसान बजाई । मुदित छोट बड़ सब समुदाई। रामहि निरखि ग्राम-नर-नारी । पाइ नयन-फल होहिं सुखारी ॥४॥ डका बजा कर बरात चली, छोटी बड़ी सब मण्डलियाँ प्रसन्न है । गाँव के स्त्री पुरुष रामचन्द्रजी को देख कर और नेत्रा का फल पा कर सुखी होते हैं ॥४॥ ! 1