पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४०९

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३५० रामचरित मानसे । चौ०-भूप भवन तेहि अवसर सोहा । रचनो देखि मदन मन मोहा ।। मङ्गल सगुन मनोहरताई । रिधि सिधि सुख सम्पदा सुहाई ॥१॥ उस समय राजमहल ऐसा शोभित है कि उसकी सजावट को देख कर कामदेव का मन मोहित हो जाता है। सुहावने महल, सुन्दरता, शकुन, ऋद्धि, सुख और सम्पति-॥१॥ जनु उछाह सब सहज सुहाये । तनु धरि धरि दसरथ गृह आये । देखन हेतु राम वैदेही । कहहु लालसा होइ न केही ॥२॥ ऐसा मालूम होता है मानों सहज सुहागने उत्साह सय शरीर धर कर दशरथजी के घर में आये हैं । रामचन्द्र और जानकीजी को देखने के लिये कहिप, किसको लालसान होगी? ॥२॥ जूध जूथ मिलि चली सुआसिनि। निज छधिनिदहिँ मदन-बिलासिनि ॥ सकल सुमङ्गल सजे आरती । गात्रहि। जनु बहु बेष भारती ॥३॥ झुण्ड की झुण्ड सुहागिनी स्त्रियाँ मिल कर चली, जो अपनी छवि के भागे कामदेव को रमानेपाली रत्ति की शोभा का निरादर करती हैं । सम्पूर्ण सुन्दर मङ्गल और भारती सजे हुए गान करती हैं, वे ऐसी मालूम होती हैं मानों सरस्वतो वहुत रूप धारण किये हो॥ ३ ॥ भूपति भवन कोलाहल होई । जाइ न बरनि समउ सुख सेाई ॥ कोसल्यादि गम महतारी। प्रेम-बियस तनु दसा बिसारी ॥४॥ में उत्सव का हल्ला हो रहा है, उस समय का आनन्द वर्णन नहीं किया जा सकता । कौशल्या आदि रामचन्द्रजो की माताएँ प्रेस के अधीन हो कर शरीर की सुधि भूत प्रेम से माताओं का आत्मविस्मृत्ति होकर निश्चेष्ट होना 'प्रलय साधिक अनु.. माव' है। दो०-दिये दान विप्रन्ह बिपुल, पूजि गनेस पुरारि । प्रमुदित परम दरिद्र जनु, पाइ पदारथ चारि ॥३४५॥ ब्राह्मणों को बहुत सा दान दिया और गणेश तथा शिवजी का पूजन किया। वे ऐसी प्रसन्न मलूम होती हैं मानों अत्यन्त दरिद्री चारो पदार्थ पा गया हो ॥ ३४५ ॥ चाo-मोद प्रमोद बिबस सब माता । चलहिँ न चरन सिथिल अये गाता॥ राम-दरस हित अति अनुरागी । परिछन साज सजन सब लागी ॥१॥ आनन्द-सुख के भतिशय अधीन हुई सब माताओं के शरीर शिथिल हो गये, वे पाँव से चल नहीं सकती हैं । रामचन्द्रजी के दर्शन के लिए अत्यन्त अनुरक हुई पाछन का सब' समान सजाने लगी ॥१॥ राजमहल गई हैं ॥४॥