पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४१०

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11 प्रथम सोपान, बालकाण्ड । बिबिध बिधान बाजने बाजे । मङ्गल मुदित सुमित्रा साजे । हरद दूध दधि पल्लव फूलौ । पान पूगफल मङ्गल-मूला ॥२॥ अनेक प्रकार के बाजे बजते हैं और सुमित्राजी प्रसन्नता से मङ्गल के सामान सजती हैं । हल्दी, दूध, दही, पत्ते, फूल, पान और सुपारी श्रादि मजल की मूल चीजें ॥२॥ अच्छत अङ्कुर रोचन लाजा । मञ्जल मञ्जरि तुलसि बिराजा । छुहे पुरट-घट सहज सुहाये । मदन-सकुन जनु नीड़ बनाये ॥३॥ अक्षत, खुए, गोरोचन, लावा और सुन्दर तुलसी की मञ्जरी सुशोभित है । गोबर से छुहे हुए सहज सुहावने सुवर्ण के कलश ऐसे मालूम होते हैं मानों उनमें कामदेव रूपी पक्षी ने घोसले बनाये हो। गोबर से छुहे हुए सुवर्ण के कलशों में जो चौकोर खाने बने हैं; वे ही उत्प्रेक्षा के विषय हैं। पक्षी रहने लिए घोसला धनाते ही हैं, परन्तु कामदेव पक्षी नहीं है । प्रौढोक्ति द्वारा यह कवि की कल्पना मात्र 'अनुक्तविषया वस्तूप्रेक्षा अलंकार' है। सभा की प्रति में 'मदन सफुच जनु नीड़े बनाये' पाठ है। परन्तु 'सकुच' शब्द से उपमा में रोचश्ता नहीं आती और मदन पक्षी नहीं है जो सकुचा कर घोसला बनाया है। । इससे 'सकुन' पाठ ठीक है। सगुनसुगन्ध न जाइ बखानी । मङ्गल सकल सजहिँ सब रानी ॥ रची आरती बहुत विधाना । मुदित करहि कल मङ्गल गाना ॥४॥ सुगन्धित सगुन की वस्तुएँ वखानी नहीं जा सकतो, सब रानियाँ सम्पूर्ण मल्लल साज सजती है। बहुत तरह की आरती बनायों और प्रसन्नता से सुन्दर मङ्गल गान करती हैं ॥४॥ दो०-कनकथार भरि मङ्गलन्हि, कमल-करन्हि लिय मातु । चली मुदित परिछन करन, पुलक प्रफुल्लित गातु ॥३४६॥ सुवर्ण के थालों में मालीक वस्तुओं को भर फर अपने कमल के समान हाथों में लिये माताएँ प्रसन्न हो कर परछन करने चलीं, उनका शरीर पुलक से रोमाञ्चित होगाया है ॥३४६॥ चौ०-धूप-धूप नभ मेचक भयऊ । सावन घन-घमंड जर्नु ठयऊ । सुरतरु-सुमन-माल सुर बरपहि। मनहुँ बलाक-अवलि मन करहि ॥१॥ धूप के धुएँ से श्राकाश काला हो गया, ऐसा मालूम होता है मानों सावन के मेध घुमड़ कर अच्छी तरह छाये हो । देवता कल्पवृक्ष के फूल की मालार बरसाते हैं, वे ऐसी मालूम होती हैं मानों बगुलों की पाँती मन को अपनी ओर सोचती है।॥१॥ मज्जुल मनि-मय बन्दनवारे । मनहुँ पाकरिपु-चाप सँवारे ॥ प्रगटहिँ दुरहिँ अटन्हि पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिँ दामिनि॥२॥ सुन्दर मणियों के बने बन्दनवार ऐसे मालूम होते हैं मानों इन्द्रधनुष सजाये हो । अटा- रियों पर स्त्रियाँ प्रकट होती और छिप जाती हैं, वे ऐसो सुन्दर मालूम होती हैं मानों चावल विज्ञलियाँ चमकती हो ॥२॥