पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४११

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. उपमान हैं। रामचरित मानस । ३५२ उत्प्रेक्षा द्वारा वर्षा का साङ्ग रूपक वर्णन है । यरसात में इन्द्रधनुष उगता है और बिजली चमकती है।धन्दनवार और इन्द्रधनुष तथा नववधुओं का बार वार कोठे की खिड़कियों के सामने होना एवम् श्रोट में हो जाना और चञ्चल विजली का चमकना परस्पर उपमेय दुन्दुभि-धुनि घन-गरजनि घोरा । जाचक चातक-दादुर-मोरा । सुर सुगन्ध सुचि बरषहि बारी ! सुखी सकल ससि पुर नर नारी ॥३॥ नगारे की ध्वनि बादलों की भीषण गर्जना है, चातक, मेढक और मुरेला मजन होग हैं। देवता शुद्ध सुगन्धित जल बरसते हैं, नगर के स्त्री-पुरुप खेती रूपी सब सुखी (लहख- हाते) हैं ॥३॥ समय जानि गुरु आयसु दीन्हा । पुर प्रबेस रघुकुल-मनि कीन्हा॥ सुमिरि सम्भु-गिरिजा-गनराजा । मुदित महीपति सहित समाजा॥ मुहर्त जान कर गुरुजी ने प्राज्ञा दी, तब रघुकुल-मणि महाराज दशरथजी ने समाज के सहित शिव-पार्वती और गणेशजी का स्मरण कर के प्रसन्नता से नगर में प्रवेश किया ॥५॥ दो-होहि सगुन बरहि सुमन । सुर दुन्दुभी बजाइ । बिबुध-बधू नाचहि मुदित, मञ्जल मङ्गल गाई ॥३१७। सगुन हो रहे हैं. देवता दुन्दुभी बजा कर फूल बरसाते हैं । देवताओं की स्त्रियाँ प्रसा हो कर नाचती और सुन्दर मङ्गल गाती हैं ॥३४७॥ चौ- -मागध सूत बन्दि नट नागर । गावहिँ जस तिहुँ लोक उजागर॥ जय-धुनि बिमल बेद बर बानी । दस दिसि सुनिय सुमङ्गल सानी॥१॥ मागध, सूत, चन्दीजन, नचवैया और चतुर लोग तीनों लोको में उजागर रामचन्द्रजी) का यश गाते हैं । जय ध्वनि, वेदी की मिर्मल उत्तम वाणी सुन्दर महल में सनी दुई दसों दिशाओं में सुनाई पड़ती हैं ॥१॥ बिपुल बांजने बाजन लागे। नम-सुर नगर-लोग अनुरागे ॥ बने बराती बरनि न जाहीं । महा मुदित मन सुख न समाहीं ॥२॥ बहुत से बाजे बजने लगे, आकाश में देवता और नगर के लोग प्रेम परिपूर्ण हुए हैं। घराती बने उने हैं वे वखाने नहीं जा सकते, बड़े प्रसन्न हैं उनके मन में सुख समाता नहीं है ॥२॥ पुरबासिन्ह तब राउ जोहारे । देखत रामहि भये सुखारे । करहिं निछावर मनि-गन चीरा । वारि बिलाचन तब पुरवासियों ने राजा को प्रणाम किया और रामचन्द्रजी को देख कर सुखी हुए। सरीरा॥३॥ पुलक रत्न-समूह और वस्त्र न्योछावर करते हैं, उनकी आँखों में जल भर आया और शरीर पुलकित हुआ ॥३॥