पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४१३

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88 रामचरित मानस । दो-निगम-नीति-कुल रीति करि, अरघ पाँवड़े देत । बधुन्ह सहित सुत परिछि सब, चली लेवाइ निकेत ॥३१॥ वेदानुकूल व्यवहार और कुल की रीति कर के वधुओं सहित लब पुत्रों की परछन कर अर्घ्य तथा पाँवड़े देते हुए महत में लिवा ले बली ॥३esh चौ०-चारि सिंहासन सहज सुहाये । जनु मनोज निज हाथ बनाये। तिन्ह पर कुँअरि कुअर बैठारे। सादर पाय पुनीत पखारे ॥१॥ सहज सुहावने चार सिंहासन जो ऐसे मालूम होते हैं मानों कामदेव ने अपने हाथ से बनाया हो, उन पर कुवरि और कुवरों को वैठा कर पादर के साथ पवित्र चरण धोये ॥१॥ धूप दीप नैवेद बेद-बिधि । पूजे बर-दुलहिन मङ्गल-निधि । बारहिं बार आरती करही। व्यजन चारु चामर सिर ढरहीं ॥२॥ धूप, दीप और नैवेद्य द्वारा वेद की विधि से माल-राशि दुलह और दुलहिनों की अच्छी पूजा की। बारम्बार आरती करती हैं और सिर पर सुन्दर पस तथा चँवर ढलते हैं ॥२॥ बस्तु अनेक निछावरि हाही । मरी प्रमोद भातु सब साहीं । पावा परम-तत्व जनु जोगी । अमृत लहेउ जनु सन्तत रोगी ॥३॥ अनेक वस्तुएँ न्योछावर होती हैं, माताएँ सब आनन्द से भरी सोहती हैं। वे ऐसी प्रसन्न मालूम होती हैं माने योगी ब्रह्म-पद को पा गया हो और मानों जन्म के रोगी को अमृत का लाभ हुआ हो । जनम-रङ्क जनु पारस पावा । अन्धहि लोचन लाभ सुहावा । मूक-बदन जनु सारद छाई । मानहुँ, समर सूर जय पाई ॥४॥ जन्म का दरिद्री मानों पारस-मणिपा गया हो और अन्धे को सुन्दर नेत्रों का लाभ ओ हो । मूंगे के मुख में मानों सरस्वती निवास किये हो और शुरवीर मान युद्ध में विजय पाये हो ॥ समा की प्रति में 'मूक-बदन जस सादर छाई पाठ है। दो-एहि सुख त सतकोटि-गुन, पावहिं मातु अनन्द । आइन्ह सहित बिआहि घर, आये रघुकुल-चन्द । इस सुख से सौ करोड़ गुना बढ़ कर भानन्द माताओं को मिल रहा है। रघुकुल रूपी कुमुदवन के चन्द्रमा (रामचन्द्रजी) भाइयों के सहित विवाह कर के घर आये ॥ लोक-रीति जननी करहि, घर दुलहिनि सकुचाहिँ । मोद बिनोद बिलोकि बड़, राम मनहिँ मुसुकाहिँ ॥३५॥ माताएँ लेाक रीति करती हैं और दूलह दुलहिन लजाते हैं। वह बड़ा आनन्द और कुतः हल देख कर रामचन्द्रजी मन में मुस्कुराते मैं ॥३५०॥