पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४१५

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रामचरित मानस । ३५६ पाय पखारि सकल अन्हवाये । पूजि भली विधि भूप जवाये ॥ आदर दान प्रेम परिपोषे । देत असीस चले मन तोषे ॥२॥ सब के पाँव धो कर स्नान करवाये और राजा ने उनकी अच्छी तरह पूजा कर के भोजन कराया। आदर, दान और प्रेम से सन्तुष्ट किया, वे मन में प्रसन्न हो कर आशीर्वाद देते हुए चले ॥२॥ बहु बिधि कीन्ह गाधिसुत पूजा । नाथ मोहि सम धन्य न दूजा ॥ कीन्ह प्रसंसा भूपति भूरी । रानिन्ह सहित लीन्ह पग धूरी ॥३॥ राजा ने बहुत तरह से विश्वामित्रजी की पूजा की और वोले-हे नाथ ! मेरे समान दूसरा कोई धन्य नहीं है । राजा ने उनकी बड़ी घड़ाई की और रानियों के सहित पाँच की धूलि को माथे पर बढ़ाया ॥ ३ ॥ भीतर भवन दीन्ह बर बासू । मन जोगवत रह नृप रनिवासू॥ पूजे गुरु-पद-कमल बहोरी । कीन्ह बिनय उर प्रीति न थोरी ॥४॥ महल के भीतर उत्तम स्थान ठहरने को दिया और राजा तथा रनिवास उनका मन जोहते रहते हैं । फिर गुरु वशिष्ठ के चरण-कमलों की पूजा की और इदय में अपार प्रेम से विनती की ॥४॥ दो-बधुन्ह समेत कुमार सब, गनिन्ह सहित महीस । पुनि पुनि बन्दत गुरु चरन, देत असीस भुनीस ॥३५२॥ बहुओं के सहित सब राजकुमार और रानियों के समेत राजा पार चार गुरु के चरणों की वन्दना करते हैं और मुनिराज आशीर्वाद देते हैं ॥ ३५२ ॥ चौ-बिनय कीन्ह उर अति अनुरागे । सुत सम्पदा राखि सब आगे ॥ नेग माँगि मुनिनायक लीन्हा । आसिरबाद बहुत बिधि दीन्हा ॥१॥ अत्यन्त प्रेम-पूर्ण हदय से पुत्र और सारी सम्पत्ति सामने रख कर विनती की (कि ये सष श्राप के हैं स्वीकार काजिप)। मुनिराज ने अपना नेग माँग लिया और बहुत तरह से आशीर्वाद दिया ॥१॥ उर धरि रामहि सोय समेता। हरषि कीन्ह गुरु गवन निकेता ।। बोलाई । चैल बार भूषन पहिराई ॥२॥ हृदय में सीताजी के सहित रामचन्द्रजी को रख कर प्रसन्नता ले गुरु अपने आश्रम को गये । राजा ने सब प्राह्मण-बधुओं को बुलवाया, उन्हें सुन्दर वस्त्र और आभूषण पहनाये ॥२॥ विप्र- बधू सब भूप