पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४२२

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । दोन्हि असीस बिन बहु भाँती। चले न प्रीति रीति-कहि जाती। राम सप्रेम सङ्ग सब भाई । आयसु पाई फिरे फिरे पहुँचाई ॥५॥ ब्राह्मण (विश्वामित्रजी) ने बहुत तरह से आशीवाद दिया और चले, वह प्रीति की रीति कहीं नहीं जाती है । रामचन्द्रजी सब भाइयों के सा प्रेम से पहुँचाने चले, कुछ दूर पहुँचा कर आशा पा लौट आये ॥५॥ दो०-राम-रूप भूपति-अगति, व्याह-उछाह-अनन्द । जात सराहत मनहिं मन, मुदित गाधि-कुल-चन्द॥३६०॥ रामचन्द्रजी की छषि, राजा दशरथजी की भक्ति और विवाहोत्सव के श्रानन्द को गाधि. कुल के चन्द्रमा (विश्वामित्रजी) मन ही मन प्रसन्न होकर सराहते जाते हैं ॥ ३६० ॥ चौ०-बामदेव-रघुकुल गुरु ज्ञानी । बहुरि गाधि-सुत कथा बखानी ॥ सुनि सुनि सुजस मनहिँ मन राज । बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ ॥१॥ शानी मुनि वामदेव और रघुकल के गुरु वशिष्ठजी ने फिर विश्वामित्र की कथा वर्णन की। उनके सुयश को सुन सुन कर राजा मन ही मन अपने पुण्य की महिमा का बखान करते हैं ॥१॥ पशिष्ठजी ने गाधितनय की कथा वर्णन की कि ये कुर्शिक राजा के पौत्र और गाधि के पुत्र हैं। एक बार पर्यटन करते हुए ससैन्य मेरे आश्रम में आये । मैंने उनका अतिथि सत्कार किया । क्षत्रिय राजा विश्वामित्र को आश्चर्य हुआ कि वनवासी मुनि के पास इतनी सामग्री कहाँ से आई P जब उनको कामधेनु की महिमा मालूम हुई, तब बहुत सा सोना रत्नादि दे कर गा लेना चाहा, परन्तु मैंने स्वीकार नहीं किया। उन्होंने जोरावरी से गौ छीन ली, जब उसे ले चले तब वह छुड़ा कर मेरे पास आई और विनय की । मैंने तपोबल से असंख्यों म्लेछ उत्पन्न कर विश्वामित्र की सेना का नाश कर दिया। इस पर वे लज्जित हो हिमालय में जा कर १००० वर्ष तप किया। शिवजी, ने प्रसन्न हो कर उन्हें धनुर्धेद साक्ष दिया। वहाँ से लौट कर उन्होंने फिर मुझसे युद्ध किया। मैं ने उनके ४२ ब्रह्मास्त्रों को बेकाम कर दिया। तब उन्होंने क्षत्रिय बल को धिक मान कर माम तेज का बल सञ्चा समझा और ब्राह्मण होने के लिए घोर तप किया। अन्त में वे तपोबत के प्रभाव से क्षत्रिय से ब्राह्मण हुए । विश्वामित्रजी का संक्षिप्त परिचय इसी काण्ड के २०५ दोहे के आगे तीसरी चौपाई . के नीचे दिया गया है, उसको देखो। बहुरे लोग रोजयसु भयऊ । सुतन्ह समेत नृपति गृह गयऊ । जहँ तहँ राम ब्याह सब गावा । सुजस पुनीत लोक तिहुँ छावा ॥२॥ आशा हुई सब लोग घर को लौटे और पुत्रों के सहित राजा महल में गये। जहाँ तहाँ सब रामचन्द्रजी के विवाहोत्सव को गाते हैं, उनका पवित्र अश तीनों लोकों में छाया हुआ है ॥२॥ . 1