पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४२५

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श्रीगणेशाय नमः श्रीजानकीवल्लभो विजयते श्रीमद् गोस्वामि तुलसीदास-कृत रामचरितमानस द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड शार्दूलविक्रीडित-वृत्त। वामाझे च च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके । भाले बाल-विधुर्गले च गरलं यस्योरसि ब्यालराट् ॥ सायं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्बदा । शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिमः श्रीशङ्करः पातुमाम् ॥१॥ जिनके वाम भाग में शैलकन्या-पार्वती, मस्तक पर गङ्गाजी, ललाट पर द्वितीया चन्द्रमा, गले में विष और छाती पर नागराज सुशोभित हैं, वे भस्म का भूषण धारण किये देवताओं में श्रेष्ठ, सबके स्वामी, नित्य, महेश्वर, सर्वव्यापी, कल्याण रूप, चन्द्रमा के समान शुक्ल वर्णवाले श्रीशङ्करजी मेरी रक्षा करें॥१॥ गुटका में सर्वः सर्वगत पाठ है, किन्तु सभा और राजापुर की प्रति में शवः सर्व गतः है । राजापुर की प्रति में यस्यांके च विभाति भूधरसुता, पाठ है, उसको पुनरुक्ति-दो के विचार से गुटका और सभा को प्रति के अनुसार 'चामाङ्क रक्खा गया है। बहुत सम्भा है कि गोस्वामीजी ने काशी की प्रति में इस पाठ का संशोधन किया हो ।