पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४२७

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रामचरित माना। रिधि सिधि सम्पति नदी सुहाई । उमगि अवध-अम्बुधि कहँ आई ॥ मनि-गन पुर-नर-नारि-सुजाती। सुचि अमोल सुन्दर सब भाँती ॥२॥ ऋषि, सिसि, और सम्पचि सुहावनी नदियाँ हैं, वे उमड़ कर अयोध्या रूपी समुद्र में आकर मिली हैं। नगर के स्त्री-पुरुष अच्छी जाति के रतलमूह सब तरह से पवित्र, अनमोल और सुन्दर है ॥२॥ वर्षा होने पर पर्वतों का जल नदियों में श्राता है, वे उगड़ कर समुद्र में मिलती है। सागर से नाना प्रकार रत्न उत्पन्न होते हैं। ठीक इसी का सापक कवि ने पौधा है। चौदही लोक पर्वत हैं। सुकृत मेध हैं, वे सुख रूपी जल बरसते हैं जिससे ऋद्धि-सिद्धिपी नदियाँ सुख-जल से भरी अयोध्या रूपी समुद्रको निरन्तर भर रही है। नगर निवासी स्त्री पुरुष रत्नागर में उत्पन होनेवाले पवित्र अनमोल सुन्दर रत्न हैं। कहि न जाइ कछु नगर बिभूती । जनु एतनिअ बिरचि करतूती ॥ सब विधि सब पुर-लोग सुखारी । रामचन्द मुख-चन्द निहारी ॥३॥ नगर का ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता, ऐसा मालूम होता है मानो ब्रह्मा की करतूत (हुनर-वाजी) इतनी ही है। श्रीरामचन्द्रजी के मुख रूपी चन्द्रमा को देख कर सम्पूर्ण नगर के लेोग सब तरह से सुखी हैं ॥३॥ प्रझा की करामात का हद नहीं बाँधा जा सकता, पर कविजी उत्प्रेक्षा करते हैं कि मानो ब्रह्मा के रचना-कौशल की यही इतिश्नी 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। मुदित मातु सब सखी सहेली । फलित बिलोकि मनोरथ बेली। राम-रूप-गुन-सील-सुभाऊ । प्रमुदित होइ. देखि सुनि राज ॥४॥ अपनी मनोकामना रूपी लता को फलवती देख कर सब माताएँ और उनको सखी सहेलियाँ प्रसन्न हैं। रामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को देख सुन कर राजा (दशरथजी) बहुत ही मानन्दित होते हैं ॥४॥ दे०-सब के उर अभिलाष अस, कहहिँ मनाइ महेस । आपु अछत जुबराज-पद, रामहि देउ नरेस ॥१॥ सब के हदय में ऐसी अभिलाषा है कि अपनी मौजूदगी में राजा रामचन्द्रजी को युव. राज-पद (राज्याधिकार) दें, वे शिवजी से प्रार्थना कर यही कहते हैं ॥३॥ चौक-एकसमय सबसहित समाजा । राजसभा सकल सुम-भूरति नरनाहू । राम-सुजस सुनि अतिहि उछाहू ॥१". एक बार सब सभासदों के सहित राजा दशरथजी राजसभा में विराजमान थे। सम्पूर्ण पुण्यों के मूर्ति नरपाल, रोमचन्द्रजी के सुयश को सुन कर बहुत हा उत्साहित हुए ॥१॥ रघुराज बिराजा॥