पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४२९

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३७० रामचरित मानस । होता है मानों आप का श्राशीर्वाद शरीर धारण कर शोभित हो रहा हो । स्वामिन् ! मपिर वार ब्राह्मणवृन्द सब श्राप ही के समान छोह करते हैं ॥२॥ जे गुरु-चरन-रेनु सिर धरहीं । ने जनु सकल विभव बस करहीं। मोहि सम यह अनुभयउ न दूजे । सब पायउँ रज-पावनि पूजे ॥३॥ जो गुरु के चरणों की धूल मस्तक पर धारण करते हैं, वे मान समस्त ऐश्वयों को अपने वश में कर लेते हैं। यह अनुभव मेरे बराबर दूसरे को न हुआ होगा कि आप के चरणों की पवित्र धूलियों की पूजा कर के ही मैं ने सब कुछ पाया ॥३॥ अब अभिलाष एक मन मारे । पूजिहि नाथ अनुग्रह तोरे ॥ मुनि प्रसन्न लखि . सहज-सनेहू । कहेउ नरेस रजायसु देहू ॥१॥ हे नाथ अब एक अभिलाषा मेरे मन में और है, यह भी आप की कृपा से पूरी होगी। मुनिराज को प्रसन्न देल कर राजा ने स्वाभाविक स्नेह से कहा-महाराज ! आशा दीजिए (तो वह मन-कामना निवेदन कर) nan दो--राजन राउर नाम जस, सब अभिमत-दातार । अनुगामी महिप-मनि, मन-अभिलाष तुम्हार ॥३॥ गुरुजी ने कहा--हे राजन् ! श्राप का नाम और यश सय वाञ्छित का देनेवाला है। हे महिपाल मणि ! फल तो श्राप के मामिलाप के पीछे पीछे चलनेवाले हैं ॥३॥ कारण से पहले कार्य को प्रकट होना अर्थात् प्रथम फल उसके पीछे मनेामिलाप वर्णन करना 'अत्यन्तातिशयोक्ति अलंकार' है। चौ०-सबबिधिगुरु प्रसन्नजियजानी। घोलेउ राउ रहसि मृदु-बानी॥ नाथ राम करियहिजुबराजू । कहिय कृपा करि करिय समाजू ॥१॥ सब तरह से गुरुजी को मन में प्रसल जान कर हर्षित हो राजा कोमल वाणी से बोले। हे नाथ! रामचन्द्र को युवराज करने के लिए कृपा कर कहिए तो तैयारी की जाय ॥१॥ मोहि अछत यह होइ उछाहू । लहहिँ लोग सब लोचन लाहू प्र प्रसाद सिव सबइ निबाहीँ । यह लालसा एक मन माहीं ॥२॥ मेरी उपस्थिति में यह उत्साहहो, जिससे सब लोग नेत्रों का लाभ पावें । प्रभो ! माप के अनुग्रह से शिवजी ने सभी (कामना) पूरी की, पर मन में एक यहा लालता है ॥ २ ॥ पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ । जेहिं न होइ पाछे पछिताऊ ॥ सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाये। मङ्गल-मोद-मूल मन भाये ॥३॥ फिर शरीर रहे या चला जाय इसका सोच नहीं, जिसमें पीछे पछतावा न हो। इस तरह अानन्द मङ्गल के मूल दशरथजी के सुहावने वचन सुन कर वे मुनि के मन में शब्छे लगे ॥३॥ 11