पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४३०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं । जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥ भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी । राम पुनीत प्रेम अनुगामी ॥४॥ गुरुजी ने कहा-हे राजन् ! सुनिए, जिससे विमुख रह कर प्राणी पछताते हैं और जिसके भजन विना (संसार-सम्बन्धी) जलन नहीं जाती। नही सर्वेश्वर रामचन्द्रजी तुम्हारे पुना हुए हैं, वे पवित्र प्रेम के पीछे चलनेवाले हैं ॥४॥ दो-बेगि बिलम्ब न करियप, साजिय सबइ समाज । सुदिन सुमङ्गल तबहिं जब, राम होहिं जुबराज ॥४॥ हे राजन् ! शीघ्र ही देरी न कीजिए, सभी सामान सजवाहये । शुभ दिन और सुन्दर माल तभी है, जब राजचन्द्र युवराज है॥४॥ श्लिष्ट शब्दों द्वारा एक और गुप्त अर्थ प्रकट होता है कि जब रामचन्द्र युवराज होंगे सभी शुभ मुहूर्त होगा अर्थातू अभी वे राज्याधिकार न ग्रहण करेंगे 'विवृतोक्ति अलंकार' है। चौ०-मुदित महीपति मन्दिर आये। सेवक सचिव सुमन्त्र बोलाये ॥ कहि जयजीव सीस तिन्ह नाये । भूप सुमङ्गल बचन सुनाये ॥१॥ राजा प्रसन्न होकर महल में आये और सेवकों तथा मन्त्री सुमन्त्र को बुलवाया। उन्हों ने जयजीव कह कर मस्तक नवाया, राजा ने सुन्दर माङ्गलीक वचन सुनाया ॥१॥ प्रमुदित भोहि कहेउ गुरु आजू। रामहिँ राय देहु जुबराजू ॥ जो पाँचहि मत लागइ नीका । करहु हरषि हिय रामहि टीका ॥२॥ आज गुरुजी ने प्रसन्नता-पूर्षक मुझ से कहा-राजन् ! रामचन्द्र को युवराज-पद दे दो। यदि पञ्चों को यह सलाह अच्छी लगे तो हषित हदय से रोमचन्द्र को राज-तिलक करो ॥२॥ राजापुर की प्रति में इस चौपाई का पूर्वार्द्ध दोनों चरण नहीं है, किन्तु गुटका और सभा की प्रति में है। कदाचित दृष्टि दोष ही का यह भी परिणाम होगा। मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी । अभिमत बिरव परेउ जनु पानी । बिनती सचिव करहिं कर जोरी । जियहु जगत-पति परिस करोरी ॥३॥ इस प्यारी वाणी को सुनते ही मन्त्री ऐसे प्रसन्न हुए मानों मनोरथ रूपी पौधे पर पानी पड़ा हो । मन्त्री हाथ जोड़ कर बिनती करते हैं कि हे जगत्पति ! आप करोड़ वर्ष जियें ॥३॥ जग मङ्गल अल काज बिचारा । बेगिय नाथ न लाइय बारा ॥ नृपहि माद सुनि सचिव सुभाखा । बढ़त बाँड़ जनुलही सुसाखा ॥४॥, हे नाथ ! आपने संसार के माल के लिए अच्छा कार्य विचारा है, जल्दी कीजिए देरी न लगाइये । मन्त्रियों की सुन्दर वाणी सुन कर राजा को ऐसा श्रानन्द हुआ मानों बढ़ती हुई लता ने अच्छी डाली पा ली हो ॥४॥