पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४३८

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड ३७ भरत-मातु पहिँ गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी। उतरु देइ न लेइ. उसासू । नारि चरित करि ढारइ आँसू ॥३॥ . मरतजी की माता के पास उदास होकर गई,रानी ने हँस कर कहा-तू लिन्न काहे को है ? मन्थरा कुछ उत्तर नहीं देती है वरन् लम्बी साँस ले रही है और त्रियाचरिन कर के आँसू डालती है ॥३॥ सभा की प्रति में 'उतरु देह नहि लेइ उसासू' पाठ है, किन्तु राजापुर की प्रति में और गुटका में उपयुक्त पाठ है। हँसि कह रानि गाल बड़ तारे। दीन्ह लखन सिख अस मन भारे । तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि । छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि ॥४॥ रानी केकयी ने हँस कर कहा कि तेरी बहुत बड़बड़ाने की आदत है, मेरे मन में ऐसा श्राता है कि लक्ष्मण ने तुझ को सिनावम दिया है । तब भी वह महा पापिन दासी नहीं बोली, श्वास छोड़ती हुई ऐसी मालूम होती है मानों काली नागिन हो । दो०-समय रानि कह कहसि किन, कुसल राम महिपाल । लखन भरत रिपुदमन सुनि, मा कुबरी उर साल ॥१३॥ तब रानी ने डर कह कहा-अरी ! कहती क्यों नहीं ? रामचन्द्र, राजा-वंशस्थ, लक्ष्मण, भरत और शत्रुहन तो कुशल-पूर्वक हैं ? यह सुन कर कुवरी के हदय में दुःख हुआ ॥१३॥ चेरी के शीघ्र न बोलने से रानी को भय हुआ कि कोई विशेष दुर्घटना तो नहीं हुई । रानी ने सर्वप्रथमं रामचन्द्रजी का कुशल-समाचार पूछा, इस से कुवरी के मन में बड़ा खेद हुश्रा । चौ०-कत सिख देइ हहिँ कोउमाई गाल करब केहि कर बल पाई। रामहि छाडि कुसल केहि आजू। जिन्हहिँ जनेस देइ जुबराजू ॥१॥ हे माता ? हमें कोई काहे को सीख देगा और मैं किस का बल पा कर मुंहजोरी काँगी ? रामचन्द्र को छोड़ कर श्राज किस का कुशल है कि जिन्हें राजा युवराज-पद देते हैं ॥ १ ॥ वक्ता मन्धरा की यातों में प्रार्थी व्यङ्ग है, क्योंकि वह अपने वचन से रामराज्य नाश करने की क्रिया छिपाती है, यह बात ब्यङ्ग से जानी जाती है। राजापुर की प्रति में 'जेहि जनेस देजुबराजू' पाठ है। वहाँ जब तक 'जेहि' शब्द के 'ज' अक्षर का दीर्घ उच्चारण न हो तथा तक छन्दोमन सा प्रतीत होगा। भयउ कासिलहि बिधि अति दाहिन । देखत गरब रहत उर नाहिन ।, देखहु कस न जाइ सब सोभा । जो अवलोकि मार मन छौभा॥२॥ कौशल्या के लिए विधाता अत्यन्त अनुकूल हुए हैं, यह देख कर उनके हदय में गर्व नहीं समाता है। जा कर सब शोभा क्यो नहीं देखती हो जो देख कर मेरा मन व्याकुल हो उठा है ॥२॥