पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४३९

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३८० रामचरित-मानस पाच्यार्थ और व्यङ्गार्थ बराबर होने से तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यङ्ग है कि तुम भी.तो. रानी ही हो, देखो कौशल्या के मन में घमण्ड नहीं अँटता है। इतने पर भी कारण तुम्हारी समझ में नहीं पाया! पूत बिदेस न सोच तुम्हारे । जानति हहु बस नाह हमारे ॥ नींद बहुत प्रिय सेज तुराई । लखहु न भूप कपट चतुराई ॥३॥ आप के पुत्र परदेश में हैं और तुम्हें कोई सोच नहीं है, (कि तुम्हारे लिए कितना बड़ा. पस्यन्त्र रचा गया है) जामती कि स्वामी मेरे वश में हैं। आप को पलंग के गद्दे पर नोंद बहुत प्यारी है, राजा की कपट-चातुरी को नहीं लखती हो ॥३॥ सुनि प्रिय बच्चन मलिनसन जानी । शुकी रानि अव रहु अरगानी ॥ पुनि अस कबहुँ कहलि घरफोरी । तल धरि जी कढ़ाव तोरी ॥४॥ प्रिय मन्थरा के वचनों को सुन कर और उसको मैले मनवाली जान कर रानी मुकी अर्थात् डाँट कर कहा कि अब चुप रह । फिर कभी ऐसी घर फोड़नेवाली बात कहेगी, तब तेरी जीभ पकड़ कर खिंचवा लूँगी ॥४॥ दो०-काने खारे कूबरे, कुटिल कुचाली जानि । तिय बिसेष पनि चेरि कहि, भरत-मातु मुसुकानि ॥११॥ काने और कुबड़े ऐबी मनुष्यों को दुष्ट तथा कुचाल वाले जान कर भरतजी को माताने फिर उसको स्त्री एवम् विशेष कर के दासी कह कर मुस्कुरा दिया ॥१४॥ एक ऐब रहने से डट कुचाली होने के लिए काफी कारण है, पर साथ ही स्त्री जाति.. उस पर रहलुनी; अन्य हेतु भी उपस्थित है, यह 'द्वितीय समुच्चय अलंकार' है । राजापुर. की प्रति में 'तिय विसेषि पाठ है। चौ०-प्रियवादिन सिख दोन्हिउँ तोही । सपनेहु ते। पर कोप नाही। सुदिन सुमङ्गल-दायक साई । तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥१॥ केकयी ने कहा है प्रिय बोलनेपाली ! यह मैं ने तुझे शिक्षा दी है; किन्तु तुझ पर मुझे सपने में भी क्रोध नहीं है । सुन्दर मङ्गलदायक अच्छा दिन वही है जिस दिन तेरा कहना सत्य हो ॥२॥ रानी केकयी ने पहिले मम्धरा पर क्रोध कर के डाँटा और ऐयी कुचाली कह कर मुस्कुराई । फिर दूसरी बात कहकर प्रथम कही हुई बात का निषेध करती हैं। 'उक्त क्षेप अलंकार' है। जंठ स्वामि सेवक लघु भाई । यह 'दिनकर-कुल-रीति सुहाई ॥ राम-लिलक जौं साँचेहुँ काली । देउँ माँगु मन-भावत आली ॥२॥ जेठा भाई राजा और छोटा भाई सेवक होते हैं, यह सूर्यकुल की सुन्दर रीति ही है। दि सचमुच कल रामचन्द्र को राज-तिलक होनेवाले है प्यारी सखी! जो तेरे मन में भाने वह माँग ले, मैं दूँगी ॥२॥ 1