पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४४०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । कौसल्या सम सब महँतारी । रामहिं सहज सुभाय पियारी । मो पर करहिं सनेह बिसेखी। मैं करि प्रीति परीछा देखी ॥३॥ सब माताएँ रामचन्द्र को स्वाभाविक ही कौशल्याजी के समान प्रिय हैं; किन्तु सुझ पर वे अधिक स्नेह करते हैं, मैं ने परीक्षा कर के उनकी प्रीति देखी है ॥३॥ बालपन में होड़ से जब कौशल्या और केकयी रामचन्द्रजी को गोद में लेने के लिये साथ ही बुलाती थीं, तब वे केकयी की गोदी में जा विराजते थे। बही पात भरतजी की माता कहती हैं। यह 'आत्मतुष्टि प्रमाण अलंकार है। जौं बिधि 'जनम देइ करि छोहू । होहु राम-सिय पूत-पतोहू ॥ प्रान ते अधिक राम प्रिय मार । तिन्ह के तिलक छोभ कस तोडा यदि ब्रह्मा जन्म दें तो क्या करें कि रामचन्द्र पुत्र हों और सीता पतोहू । रामचन्द्र मुझे प्राणों से बढ़ कर प्यारे हैं, उनके तिलक में तुझे क्यो घबराहट हुई है १ ॥४॥ सभा की प्रति में होहिं राम-सिय' पाठ है। इस अन्तिम प्रश्न को केकयी ने देव-माया की प्रेरणा से किया। दो०-भरत सपथ ताहि साँच कहु, परिहरि कपट दुराउ । हरष समय बिषमय करसि, कारन माहि सुनाउ ॥१॥ तुझे भरत की सौगन्द है, छल और छिपाच छोड़ कर सच कह । तू हर्ष के समय विषाद करती है, इसका कारण मुझे सुना ॥१५॥ चौ०-एकहि बार आस सब पूजी । अब कछु कहब जीभ करि दूजी। फोरइ जोग कपार अभागा । भलउ कहत दुख गैरेहि लागा ॥१॥ मन्थरा कहती है-एक ही बार में सब आशाएँ पूरी हो गई, क्या अब दूसरी जीभ कर के कुछ कहूंगी। मेरा श्रभागा कपाल फोड़ने योग्य है कि अच्छी बात कहते हुए आप को वह दुखदाई लगी ॥१॥ कहहिं कूठि फुरि बात बनाई । ते प्रिय तुम्हहिं करुइ मैं माई । हमहुँ कहब अब ठकुरसाहाती । नाहिं त मान रहब दिन राती ॥२॥ हे माता ! जो झूठी सच्ची बातें बना कर कहती हैं वे श्राप को प्यारी हैं और मैं कड़वी हूँ। श्रय में भी लालोचप्पो की बात कहूँगी, नहीं तो दिन रात चुपारहंगी ॥२॥ मन्धरा के कथन में अपने को सत्य बोलनेवाली प्रमाणित करने की ध्वनि है। या तो मुंहदेखी बात बोलूँगी या निरन्तर मौन धारण किये रहूँगी 'विकल्प अलंकार' है। करि कुरूप विधि परबस कीन्हा । बवा सो लुनिय लहिय जो दीन्हा । कोउ नप होउ हमहिँ का होनी। चेरि छाडि अब होब कि रानी ॥३॥ विधाता ने मुझे कुरूप बमा कर पराधीन किया है, (इसमें दूसरे का क्या दोष ?) जो